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सिद्धांत एवं प्रतीकार्य
[ भाग १ ये चार द्रव्य श्वेतांबर आम्नाय के अनुसार सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र्य और सम्यक् तप हैं और दिगंबर आम्नाय के अनुसार चैत्य (जिन-मूर्ति), चैत्यालय (जिन-मूर्ति सहित मंदिर), श्रुत (शास्त्र) और धर्म-चक्र हैं। एक रेखाकृति के रूप में इनकी प्रस्तुति पाषाण या धातु के माध्यम से की गयी या उन्हें वस्त्र या कागज पर चित्रांकित किया गया। ऐसी श्वेतांबर रेखाकृति सिद्धचक्र (चित्र ३०७, पाषाण पर, नाडौल में प्राप्त; चित्र ३०६ क, कांस्य-निर्मित, बड़ौदा-संग्रहालय में) कहलाती है और दिगंबर रेखाकृति नवदेवता (चित्र ३०६ ख, कांस्य-निर्मित, तिरुप्परुत्तिक्कूण्रम् में प्राप्त ) । इस रेखाकृति के चित्रांकन में पाँचों परमेष्ठी पृथक्-पृथक् रंगों में अंकित किये जाते हैं। अहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु क्रमशः श्वेत, लाल, पीले, नीले और काले रंगों में अंकित होते हैं।
श्वेतांबर नव-पद में शेष चार द्रव्यों का रंग, नव-पद-आराधना-विधि' नामक ग्रंथ के अनुसार, ध्यान के रंग के अनुरूप श्वेत होता है। पंच-परमेष्ठियों की एक दिगंबर रेखाकृति एक दक्षिण भारतीय कांस्य-फलक पर अंकित है जो समंतभद्र विद्यालय, दिल्ली के संग्रह में विद्यमान है (चित्र ३०८)। दिगंबर तंत्र में लघु-सिद्धचक्र और बृहत्-सिद्धचक्र नामक दो रेखाकृतियाँ और भी हैं जो दिगंबर नव-देवता और श्वेतांबर सिद्धचक्र से बहुत भिन्न हैं ।
हेमचंद्र ने लिखा है कि सिद्धचक्र की रेखाकृति के रूप में प्रस्तुति का विधान वज्रस्वामी ने विद्यानुप्रवाद-पूर्व नामक अंतिम आगम के आधार पर ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों में किसी समय किया था। अपने ग्रंथ शब्दानुशासन पर स्वोपज्ञ टीका बृहन्न्यास में हेमचंद्र ने सिद्धचक्र को एक समय-प्रसिद्ध (परंपरा से प्रचलित) रेखाकृति बताया । सिद्धचक्र की रेखाकृति की पूजा का इससे प्राचीनतर उल्लेख एक भी उपलब्ध नहीं है किंतु इंद्रनंदी की मानी जाने वाली (लगभग दसवीं शताब्दी) जिन-संहिता के नित्य-संध्या क्रिया-विधि नामक विभाग में नव-देवताओं की स्तुति की गयी है । प्रतीत होता है कि प्रारंभिक काल से पंच-परमेष्ठियों की पूजा और स्तुति होती रही।
1 रामचंद्रन्, पूर्वोक्त, चित्र 36, 2. 2 और विस्तार के लिए द्रष्टव्य' : शाह, पूर्वोक्त, 1955, पृ 97-103. 3 सिरि-सिरिबालकहा, श्लोक 1185-91 के अनुसार भी. 4 प्रतिष्ठा-सारोद्धार. अध्याय 6./सिद्धप्रतिष्ठाविषि, श्लोक 10-14./एक संधि की जिन-संहिता (पाण्डुलिपि), अध्याय
9, श्लोक 88 तथा परवर्ती, वादि-कुमुदचंद्र के प्रतिष्ठाकल्पटिप्पणम् (पाण्डुलिपि) का यंत्र-मंत्र-विधि नामक
विभाग. 5 योगशास्त्र, 8,74-75. 6 इस ग्रंथ की खण्डित पाण्डुलिपियाँ दिगंबर जैन शास्त्र-भण्डारों में विद्यमान है.
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