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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्य [ भाग १ जैन परंपराओं के अनुसार तीर्थंकर की कुछ असाधारण विशेषताएँ (अतिशय) होती हैं। परंतु समवायांगसत्र आदि प्राचीन ग्रंथों में वर्णित अतिशयों की नामावलि से अष्ट-महाप्रातिहार्यों को पृथक् नहीं रखा गया है जो तीर्थंकर-मूर्ति के परिकर के रूप में सर्वत्र अंकित किये जाते हैं। महाप्रातिहार्यों के रूप में अंकित आठ अतिशयों का प्रचलन तब आरंभ हुआ जब दोनों आम्नायों की मूर्तियों में एक सर्वांग-पूर्ण परिकर की अनिवार्यता मान ली गयी। यह प्रक्रिया क्रमिक थी, इसकी पुष्टि तब होती है जब कुषाण और गुप्त कालों की मूर्तियों की तुलना उत्तर-गुप्त और मध्य कालों की मूर्तियों से की जाती है । मूर्तिशास्त्र तथा अवशिष्ट कलाकृतियों से सिद्ध होता है कि जैन धर्म में देव-देवियों की मान्यता गुप्त काल के अनंतर अतितीव्र गति से विकसित हुई। तांत्रिक प्रभाव बौद्ध और हिन्दू धर्मों पर मध्य काल के प्रारंभ से ही पड़ रहा था। इस प्रवाह से जैन धर्म बच न सका जिसके फलस्वरूप इंद्रनंदी ने ज्वालामालिनीकल्प, मल्लिषेण ने भैरवपद्मावतीकल्प और शुभचंद्र ने अंबिकाकल्प नामक ग्रंथ लिखे । जैन विधि-विधानों पर हिन्दू कर्मकाण्ड का दुर्दम प्रभाव पड़ा जिसका प्रमाण है आशाधर (दिगंबर) का प्रतिष्ठासारोद्धार, पादलिप्त की निर्वाणकलिका और वर्धमान-सूरि (श्वेतांबर) का आचार-दिनकर । जैनेतर तत्त्वों से आपूर्ण तांत्रिक प्रभाव इतना व्यापक हुआ कि वह मतिसागर के ग्रंथ विद्यानुशासन (लगभग सोलहवीं शताब्दी) में प्रकट हुआ जो अब भी अप्रकाशित है। इन ग्रंथों और दोनों आम्नायों के अनेक प्रतिष्ठा-ग्रंथों में जैन मूर्तिशास्त्र की अपार सामग्री विद्यमान है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड़, तमिल आदि के जैन पुराण जैन मूर्तिशास्त्र के अध्ययन के समृद्ध स्रोत हैं। स्तोत्र-ग्रंथों और साथ-साथ आख्यान-ग्रंथों में भी इस विषय की सामग्री विद्यमान है। प्रारंभिक ग्रंथ मानसार के अतिरिक्त अपराजितपृच्छा, देवतामूर्तिप्रकरण, रूपमण्डन, ठक्कुर फेरु का वास्तुसार आदि शिल्पग्रंथ भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं जिनमें जैन मूर्तिशास्त्र के अध्ययन की सामग्री विद्यमान है। प्रतीक जैन दर्शन में सृष्टिकर्ता ईश्वर का कोई विधान नहीं और मोक्ष-प्राप्ति के लिए सिद्धांत की दृष्टि से तो मूर्ति-पूजा तक नितांत अनावश्यक है। वास्तव में भाव-पूजा (मनोयोग) ही सार्थक है, न कि द्रव्य-पूजा (भौतिक-उपासना, मूर्ति-पूजा), जैसाकि कुंदकुंदाचार्य ने लिखा है। जैन दर्शन में, इसीलिए, पूजा का तात्पर्य किसी दिव्य पुरुष अथवा देव या देवी की नहीं बल्कि ऐसे मनुष्य की पूजा से है जो सब प्रकार के बंध से मुक्त होकर कृतकृत्य हो चुका हो। इसका तात्पर्य उस व्यक्ति-पूजा से 1 द्रष्टव्य : चम्पतराय जैन, प्राउटलाइन ऑफ जैनिज्म, पृ 129-30. /पुष्पदंत का महापुराण, 1, 18, 7-10, समवायांग-सूत्र, सूत्र 34,459-60./अभिधानचिन्तामरिण, हेमचंद्रकृत, 1,57-64, सिलोयपण्णरणत्ती, 4, 1896 तथा परवर्ती, 915 तथा परवर्ती. 490 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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