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________________ अध्याय 35] मूर्तिशास्त्र विद्यमान थे और अँगुलियाँ परस्पर संपृक्त (अच्छिद्र-जाल-पाणि) थीं। यह एक ऐसा लक्षण है जो गुप्तकालीन बुद्ध-मूर्तियों में मिलता है पर कुषाणकाल की एक भी मूर्ति में नहीं मिलता; अँगुलियाँ पुष्ट भी थीं और कोमल भी और रक्तिम नख ताँबे की भाँति कांतिमान् थे। उनके करतलों पर चंद्र, सूर्य, शंख, चक्र, स्वस्तिक आदि के चिह्न विद्यमान थे। उनके स्वर्ण-पटल की भाँति चमकते हुए सुगठित और सुस्पर्श वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न विद्यमान था; उनकी सुदृढ़ पीठ की अस्थियाँ मांस-पेशियों से अदृश्य थीं। स्वर्ण-दण्ड-सा देदीप्यमान उनका शरीर सौम्य और पुष्ट था। उनकी बगलें सूबद्ध, संदर और समरूप थीं; उनके शरीर के रोम निर्मल, कोमल, सरल, सरस, सुस्पर्श और मोहक थे। उनका उदर मत्स्य या पक्षी के उदर की भाँति सबल और पीन था और उनकी कोख मत्स्य की कोख के समान थी; उनके शरीर के सभी अवयव निर्मल और निर्दोष थे; नव-विकसित कमल-के-से आकार की उनकी गहरी नाभि गंगा की तरंग की भाँति भीतर-ही-भीतर प्रदक्षिणावर्त थी। ऊपर-नीचे स्थूल और मध्य में कृश उनका धड़ या शरीर का मध्य भाग तिपाई या मूसल या दर्पण या वज्र की भाँति था; उनके नितंब ऐसे थे जैसे उत्कृष्ट कोटि के अश्व या सिंह के होते हैं, अश्व के गुप्तांगों के समान उनके भी गुप्तांग निर्दोष और सुगठित थे । सर्वोत्तम गज की चाल के समान उनकी चाल थी । उनकी जंघाएँ मज की सूढ़ जैसी थीं; उनकी गुल्फ-संधियाँ अदृश्य थीं मानो ढक्कनदार पेटी में छिपी हों; उनकी पिण्डलियाँ मृग की पिण्डलियों के समान थीं, उनके सुगठित घटने मांस-पेशियों में लुप्तप्राय थे, कच्छप के चरणों की भाँति उनके सुरम्य और सुगठित चरणों में अँगुलियाँ संपृक्त थीं और उनके नख ताम्र-वर्ण थे। कमल-दल की भाँति उनके सुकोमल और रक्तिम पदतलों पर पर्वत, नगर, कच्छप, समुद्र, चक्र आदि के चिह्न विद्यमान थे। प्रदीप्त अग्नि या प्रकाश-पंज या उदीयमान सूर्य की भाँति तेजस्वी महावीर में वे एक हजार पाठ लक्षण विद्यमान थे जो किसी भी महामानव में होना चाहिए । तीर्थंकर या बुद्ध की सभी मूर्तियाँ महापुरुष-लक्षणों की मूल अवधारणा पर आधारित हैं। परोक्ष रूप से प्रतीत होता है कि जैन अवधारणा में उष्णीष तो था पर ऊर्णा नहीं। अबतक ज्ञात या प्रकाशित तीर्थंकर-मूर्तियों में आधा दर्जन ही अधिक-से-अधिक ऐसी होंगी जिनमें ऊर्णा का अंकन है। उष्णीष का अंकन प्रायः सभी मूर्तियों में निरंतर हुआ, परंतु मथुरा और अन्य स्थानों में ऐसी मूर्तियाँ भी मिली हैं जिनमें वह नहीं है। ललाट पर गोल तिलक का अंकन बहुत कम हा; इसका एक उदाहरण मथुरा में मिला है (प्रथम खण्ड में पृ० ११४ रेखाचित्र ६ में वाराणसी से प्राप्त मूर्ति-संपादक)। यह जैन विवरण स्थिरमति के ग्रंथ रत्न-गोत्र-विभाग में आयी बुद्ध-मूर्ति की अवधारणा के अत्यंत अनुरूप है। तीर्थंकर के शरीर का एक आदर्श किन्तु संक्षिप्त विवरण वसुदेव-हिण्डी में भी है जो गुप्त काल का ही ग्रंथ है। 1 जर्नल ऑफ़ व बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, 36, 4 1-119 और अध्याय 3, श्लोक 17-25. वासुदेव शरण अग्रवाल, 'थर्टी-ट्र माक्स ऑफ़ बुद्ध-बॉडी', जर्नल ऑफ़ दि ओरियंटल इंस्टीट्यूट, बड़ौवा, 1. अंक 1. 4 20-22. 489 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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