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सिद्धांत एवं प्रतिकार्थ
[ भाग १ से, किन्तु उन्हें तीथंकर-मूर्ति की मुख्य विशेषताओं में स्थान दे दिया गया। शाश्वत तीर्थंकरों का वर्णन जिन ग्रंथों में है उनमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं कि तीर्थंकरों के शरीर पर वस्त्र भी होता था। किसी भी प्राचीन जैन ग्रंथ में महापुरुषों के लक्षणों का निर्देश नहीं है जबकि बौद्ध संकर संस्कृत ग्रंथों तथा अन्य बौद्ध ग्रंथों में उनका निर्देश सामान्य रूप से हुआ है। तथापि, औपपातिक-सूत्र नामक एक उपांग आगम ग्रंथ में जो महावीर के शरीर का समूचा वर्णन (वर्णक) आया है और जो अन्य सभी आगमों में उसी रूप में मिलता है उसमें महावीर के शरीर की एक अत्यंत उल्लेखनीय विशेषता ऐसी भी बतायी गयी है जो प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में वर्णित महापुरुष-लक्षणों से मिलती-जुलती है और कहींकहीं तो उनकी शब्दावली भी एक-सी है।
महावीर के शरीर का औपपातिक-सूत्र में जो वर्णन आया हैउसके अनुसार महावीर के शरीर की ऊँचाई सात हाथ थी, उनके शरीर का संहनन वज्र के समान सुदृढ़ था, उनकी श्वास कमल की भाँति सुगंधित थी और उनका रूप सुदर्शन था। शरीर स्वेद तथा ऐसे ही अन्य दोषों से मुक्त था। उनके मस्तक का अग्रभाग सुदृढ़ था और कुटाकार अर्थात् पर्वत-शिखर की भाँति उन्नत था और मस्तक पर गहरे काले और सघन केश ऐसे घुघराले थे मानों काढ़ दिये गये हों (प्रदक्षिणावर्त) । दाडिम-पुष्पों के गुच्छ के आकार का भगवान् का कपाल स्वर्ण की भाँति निर्मल और कांतिमान् था; उनका मस्तक छत्राकार था; उनका समानुपात ललाट चंद्रमा की भाँति निष्कलंक
और प्रभामय था; पूर्ण चंद्र-सा चमत्कृत मुख-मण्डल सदा प्रसन्न, आनुपातिक और उत्कृष्ट था, कपोल हृष्ट-पुष्ट थे। उनके नेत्र-रोम बारीक, गहरे काले और चिकने थे और उत्तान धनुष की भाँति दिखते थे; उनके नेत्र पूर्ण विकसित श्वेत कमल की भाँति थे जिनके रोम भी श्वेत वर्ण के थे; उनकी नासिका लंबी, पतली और गरुड़ की नासिका-सी उन्नत थी; उनका अधरोष्ठ प्रवाल या चेरी या बिंब-फल की भाँति मोहक और रक्ताभ था; चंद्रमा, शंख, दुग्ध आदि की भाँति धवल उनकी दंतावलि परिपूर्ण, अखण्डित, एकरूप और समतल थी; उनका तालु और जिह्वा तप्त स्वर्ण के समान उज्ज्वल थी; संभाली हुई उनकी दाढ़ी-मूंछ उनको अवस्था के अनुसार बढ़ी हुई थीं, उनकी दाढ़ी सिंह की-सी सूगठित और सुविकसित थी। चार अंगुल लंबी उनकी ग्रीवा शंख के समान (कम्ब-ग्रीवा) थी। उनके कंधे वृषभ, सिंह, शूकर या गज के कंधे की भाँति विशाल और प्रतिपूर्ण थे; उनकी गोल, सुगठित
और मांसल भुजाओं के जोड़ सुदृढ़ थे और वे नगर-द्वार की अर्गला की भांति लंबी थीं; उनके लंबे और सबल हाथ उन्नत-फण भुजंग-से दिखते थे; उनके कोमल मांसल और रक्ताभ करतलों पर मंगल-चिह्न
1 जैन और बौद्ध वर्णनों के विश्लेषण में लिखा गया एक लेख इस लेखक ने इण्टरनेशनल कांग्रेस प्रॉफ़
मोरियण्टलिस्ट्स के नई दिल्ली में 1964 में हुए अधिवेशन में पढ़ा था और उसे वोगल कम्मेमोरेशन वॉल्यूम में प्रकाशनार्थ भेजा था जो दुर्भाग्य से अबतक प्रकाशित नहीं हो पाया है, इसलिए यहाँ औपपातिक-सूत्र का वर्णन
ही उन्मुक्त अनुवाद के रूप में दिया जा रहा है क्योंकि यहाँ उसकी उपयोगिता स्पष्ट है. 2 औपपातिक-सूत्र, सूत्र 10, और अभयदेव की टीका, 1 26-42. 3 ऐसा तो नहीं कि उष्णीष का प्रचलन इसी से हुआ हो ?
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