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________________ अध्याय 35 ] मूर्तिशास्त्र हैं ?), भृगार (एक विशेष प्रकार का घट), दर्पण, थालियाँ, घट, आसन, रंग-विरंगे आभूषणों की मंजूषाएँ, अश्वों, गजों, मनुष्यों, किन्नरों, किंपुरुषों, महोरगों, गंधर्वो और वृषभों के शीर्ष, पुष्पों और मालाओं की चंगेरियाँ (अमलबेत से बनी टोकरियाँ) तथा वासचूर्णों और अंगरागों आदि की डिब्बियाँ, मयूर के पंखों से बनी पिच्छियाँ, फूलों की टोकरियाँ (पटलक), एक सौ आठ सिंहासन, छत्र, चमर, तैल-कूपिकाएँ (तेल की कुप्पियाँ), भाण्डकोष्ठ (कुठियाएँ), चोयक, तगर, हरिताल, हिंगुलक, मनःशिला, अंजन तथा एक सौ आठ ध्वज स्थापित होते हैं। ___ अंगोपांगों के उपर्युक्त वर्णन से प्रतीत होता है कि ये तीर्थकर-मूर्तियाँ कदाचित् खड्गासनस्थ रही होंगी । श्वेतांबरों और दिगंबरों के मध्यकालीन प्रतिष्ठापाठों में और शिल्पशास्त्रों में तीर्थकर-मति के साथ जिन पाठ महा-प्रतिहार्यों का विधान किया गया है उनकी नामावली उपर्युक्त विवरण में नहीं है, तथापि जिन-मूर्ति के परिकर के अंतर्गत मान्य इन आठ प्रातिहार्यों में कुछ ऐसे तत्त्व हैं जो उपर्युक्त विवरण में स्पष्ट दीख पड़ते हैं। इस विवरण में जिन-मूर्तियों का कवित्व और अतिरंजना से मिश्रित वर्णन तो है ही, उस जैन पूजा-पद्धति का समावेश भी है जो इन विवरणों के लेखक या लेखकों की दृष्टि में रही होगी। इस सबका तात्पर्य यह हुआ कि उपलब्ध पुरातात्त्विक सामग्री से तुलना करने पर, उपर्युक्त विवरण का लेखनकाल ईसा की प्रारंभिक शताब्दियों से पूर्व का नहीं प्रतीत होता । इस काल की जो तीर्थंकर-मूर्तियाँ मथुरा से प्राप्त हुई हैं उनपर तीर्थंकर के दोनों ओर एक-एक चमरधारी सेवक या एक करबद्ध नाग और कभी-कभी मूर्ति के ऊपर दोनों ओर एक-एक मालाधर और तीर्थंकर के मस्तक पर छत्र अवश्य होते हैं । कुण्डधर, टीकाकारों के अनुसार, वे साधारण देव होते हैं जो आदेशों का (इंद्र के ?) पालन करते हैं, किन्तु यदि कुण्ड शब्द का अर्थ जलघट-जैसी कोई वस्तु लिया जाये तो हम मथुरा की उन मूर्तियों को इनकी समानांतर मान सकेंगे जो कभी-कभी जल-पात्र लिये होती हैं। उपर्यक्त विवरण में न तीर्थंकरों के लांछनों का कोई उल्लेख है, न ही शासन-देवताओं (अर्थात् वे सेवक, यक्ष और यक्षी जो शासन या जैन संघ का संरक्षण करते हैं) की मूर्तियों का। ये अभिप्राय मथुरा में भी कुषाणकाल की कृतियों में अनुपस्थित हैं। विशेष रूप से ध्यान देने योग्य वह श्रीवत्सचिह्न है जिसका उल्लेख लक्षण-ग्रंथों में आता है और जो मथुरा की कुषाणकालीन तीर्थंकर-मूर्तियों पर अवश्य उत्कीर्ण किया गया, किन्तु यह चिह्न न तो लोहानीपुर से प्राप्त पॉलिशदार (मौर्यकालीन) धड़ पर है और न प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम की उस प्राचीन कायोत्सर्ग पार्श्वनाथ-कांस्य-मूर्ति पर जिसे मैंने ईसा से भी पूर्व की सिद्ध किया है (देखिए प्रथम भाग में पृ० ६०-६१, चित्र ३७) । प्रतीत होता है कि पदतलों और करतलों पर उत्कीर्ण किये जाने वाले चिह्न और वक्षस्थल पर उत्कीर्ण किया जाने वाला श्रीवत्स-चिह्न लिये तो गये महापुरुषों के लक्षणों की प्रचलित परंपरा 1 इस श्वेतांबर मान्यता की तुलना दिगंबर हरिवंशपुराण (पर्व 5, श्लोक 361-65) के उस संक्षिप्त विवरण से की जा सकती है जिसमें अकृत्रिम सिद्धों के परिवार अर्थात् सिद्धायतन में विराजमान शाश्वत प्रतिमाओं का उल्लेख है. 487 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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