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________________ सिद्धांत एवं प्रतीकार्य [ भाग 9 वर्त है किन्तु प्रतिष्ठा - सारोद्धार के अनुसार वह स्वस्तिक है ( जो हेमचंद्र की श्वेतांबर परंपरा के अनुरूप है ) । दसवें तीर्थंकर का चिह्न तिलोय पण्णत्ती के अनुसार स्वस्तिक है जबकि प्रतिष्ठा सारोद्वार के अनुसार श्रीवृक्ष है । लांछनों के संबंध में जो प्राचीनतम उल्लेख दिगंबर या श्वेतांबर शास्त्रों में मिलता है वह इन दोनों संप्रदायों के विभाजन के बाद का है । अतएव विभिन्न लांछनों के प्रारंभ और विकास के अध्ययन के लिए पुरातात्त्विक साक्ष्य लिये जा सकते हैं । बहुत विस्तार में गये बिना इतना कहना ही पर्याप्त होगा कि कुषाणकाल की किसी भी जिन-मूर्ति पर लांछन अंकित नहीं है । जिनपर लांछन भी अंकित हो और जिनका निर्माणकाल भी ज्ञात हो सका हो ऐसी मूर्तियों में जो प्राचीनतम है ऐसी नेमिनाथ की राजगिर से प्राप्त एक अंशतः खण्डित मूर्ति पर लांछन अंकित है; और चंद्रगुप्त के उल्लेख सहित एक गुप्तकालीन अभिलेख भी उसपर उत्कीर्ण है । पादपीठ के मध्य में खड़े चक्रपुरुष की एक सुंदर आकृति बनी है, उसके पीछे चक्र है और चक्र के दोनों ओर एक-एक शंख है जो नेमिनाथ का चिह्न है । 1 लांछन का अंकन आशाधर 2 ( तथा अन्य जैन ग्रंथकारों) के अनुसार पादपीठ पर नीचे मध्य में होना चाहिए, जबकि यक्ष और यक्षी के अंकन क्रमशः (पादपीठ के ) दायें और बायें होना चाहिए । जैन मूर्तिशास्त्र की एक उल्लेखनीय विशेषता यह है कि चौबीसों तीर्थंकरों के नामों के विषय में दोनों संप्रदाय पूर्णतया एकमत हैं । तीर्थंकरों की नामावली आगमों में आयी है, जैसे कल्पसूत्र में, आवश्यक सूत्र के लोगस्ससुत्त में, भगवतीसूत्र ( १६, ५) में । श्राचारांगसूत्र (सूत्र १२६ ) और उसकी निर्युक्ति में भूत, वर्तमान और भविष्य काल के तीर्थंकरों का उल्लेख है । स्थानांगसूत्र ( सूत्र २,४,१०८ ) में उनके वर्णों का उल्लेख है । दिगंबर संप्रदाय के अनुसार उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ पुरुष थे किन्तु श्वेतांबरों का विश्वास है कि मल्लि स्त्री थी । मतभेद का कारण यह है कि दिगंबरों के अनुसार स्त्री पर्याय से मुक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती। यह मान्यता कदाचित् इसलिए सबल होती गयी होगी क्योंकि स्त्रियाँ निर्वस्त्र नहीं हो सकतीं और वे त्याग की पराकाष्ठा अर्थात् जिन कल्प का पालन नहीं कर सकतीं। इस प्रकार, उन्नीसवें तीर्थंकर के पुरुष या स्त्री माने जाने का प्रश्न मुख्यतः श्वेतांबर - दिगंबर मतभेद अर्थात् अचेलकत्व पर निर्भर है । 1 इसका प्रथम बार प्रकाशन रामप्रसाद चंदा ने किया था, आर्क्यॉलॉजिकल सर्वे प्रॉफ़ इण्डिया, एनुअल रिपोर्ट, 1925-26. 1928, कलकत्ता, चित्र 56 ख; / उमाकांत प्रेमानंद शाह, स्टडीज इन जैन चार्ट, 1955, बनारस रेखाचित्र 18. [ प्रथम भाग में पृष्ठ 128, चित्र 53 भी देखिए -- संपादक. ] 2 प्रतिष्ठा सारोद्वार, 1, 77 स्थिरेतरार्चयोः पादपीठस्याधो यथायथम् । लांछनं दक्षिणे पार्श्वे यक्षं यक्षों च वामके ॥ 3 जैसाकि इस लेखक ने अन्यत्र लिखा है, यह मतभेद अपने वास्तविक और अंतिम रूप में पाँचवी शती के उत्तरार्ध में प्रकट हुआ क्योंकि उसी समय श्रागम ग्रंथों का पुनः संपादन किया गया और उन्हें संप्रदायों की अपनी-अपनी अपेक्षा के अनुरूप ढाला भी गया। जैन मुनिचर्या के इतिहास में विभिन्न तीर्थंकरों की प्रायिकाओं ( साध्वियों ) की गणिनियों की नामावलियों को दोनों संप्रदायों ने सुरक्षित रखा, और मथुरा के कंकाली-टीला से प्राप्त तीर्थंकरमूर्तियों के पादपीठों पर मुनियों और आर्यिकामों का अंकन हुआ है, इन दो कारणों से अनुमान होता है कि प्रारंभ में नारी मुक्ति पर इस प्रकार का प्रतिबंध कदाचित् नहीं था. जहाँ तक वस्त्र त्याग का प्रश्न था सो वह तो मुनियों तक के लिए वैकल्पिक था. Jain Education International 484 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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