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अध्याय 35 ]
मूर्तिशास्त्र वासुपूज्य का प्रवाल या कमल की भांति लाल था। यही कथन श्वेतांबर आवश्यक निर्यक्ति में भी किया गया है, और इसी कारण इस अनुमान में कोई बाधा नहीं कि वर्ण-संबंधी यह मान्यता कमसे-कम उस काल से पूर्व की है जब दोनों संप्रदायों के मूर्ति-पूजा से संबद्ध ग्रंथों के विभाजन को अंतिम रूप मिला।
विभिन्न तीर्थंकर-मूर्तियों की पहचान उनके प्रासनों के ऊपर या नीचे अंकित लांछनों से होती है। दोनों संप्रदायों में इन प्रतीकात्मक चिह्नों का विधान है। पर यह विधान किसी भी प्राचीन ग्रंथ में नहीं मिलता। इन चिह्नों की सूची न तो किसी आगम ग्रंथ में है, न कल्पसूत्र में जिसमें तीर्थंकरों के जीवन-चरित्रों का वर्णन है, न नियुक्तियों में और न चूणियों में । वसुदेव-हिण्डी (लगभग ५०० ई० या इससे भी कुछ पूर्व) में कई तीर्थंकरों की चर्चा है पर उसमें भी इन चिह्नों का संकेत नहीं हुआ। दिगंबर ग्रंथों में वरांग-चरित (छठी शती), जिनसेन के आदि-पुराण (लगभग ७५०-८३० ई०), गुणभद्र (८४० ई०) के उत्तर-पुराण, रविषेण (६७६ ई.) के पद्मचरित आदि प्राचीन ग्रंथों में भी इनका उल्लेख नहीं मिलता। अवश्य ही तिलोय-पण्णत्ती में यह सूची है, किन्तु इसका जो पाठ प्राज उपलब्ध है वह उत्तरकलीन लेखकों द्वारा विकृत किया गया प्रतीत होता है ।2
दोनों संप्रदायों की सूचियों की तुलना से ज्ञात होगा कि कुछ तीर्थंकरों के लांछनों में मतभेद है :(१) चौदहवें तीर्थंकर अनंत का चिह्न हेमचंद्र के अनुसार बाज पक्षी है जबकि दिगंबरों के अनुसार वह रीछ है, (२) दसवें शीतल का श्रीवत्स (हेमचंद्र) माना गया है और दिगंबरों के अनुसार स्वस्तिक (तिलोय-पण्णत्ती) या श्रीवृक्ष (प्रतिष्ठा-सारोद्धार) है, और (३) अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ का चिह्न दिगंबरों के अनुसार मछली है किन्तु श्वेतांबरों के अनुसार नंद्यावर्त है। स्वयं दिगंबर ग्रंथकारों में कुछ मतभेद हैं, जैसे सातवें तीर्थंकर का चिह्न तिलोय-पण्णत्ती के अनुसार नंद्या
आवश्यक-नियुक्ति, गाथा 376-77. अभिधान-चिंतामणि, 1, 49. कुछ अंतर है, श्वेतांबर संप्रदाय के अनुसार मुनिसुव्रत और नेमिनाथ का वणं गहरा और सुपाव और पावं का गहरा नीला है, किंतु मेरे विचार से यह कोई विशेष अंतर नहीं है क्योंकि चित्रांकन के समय रंगों के चुनाव में इतना अंतर पड़ सकता था कि आवश्यकनियुक्ति में उल्लिखित गहरा नीला दिगंबरों में हरा हो गया हो, या फिर गहरे रंग का अर्थ गहरा नीला कर लिया गया हो सकता है । जैसाकि मैंने अपने लेख 'वृषाकपि इन दि ऋग्वेद', जर्नल ऑफ़ दि ओरियंटल इंस्टीट्यूट, 7, 1958-59, में लिखा है कि हरित शब्द का प्रयोग कई प्रकार के रंगों के लिए होता था और बहुत-से
हलके रंगों के लिए तो तब कोई शब्द भी रूढ़ न हुए थे. . 2 एक स्थान पर बालचंद्र सैद्धांतिक का नाम भी इसमें पाया है, इसलिए भी मेरी यह धारणा बनी. 3 तिलोय-पण्णत्ती, 4, 605 के अनुसार तगर-कुसुमा और प्रतिष्ठा सारोद्धार के अनुसार तगर । तिलोय-पण्णत्ती
के संपादकों ने तगर-कुसुमा का अर्थ किया है 'मछली' जिसका समर्थन कन्नड़ के दिगंबर स्रोतों से भी होता है, टी. एन. रामचंद्रन्. तिरुपत्तिककुण्रम् एण्ड इट्स टेम्पल्स, बुलेटिन ऑफ़ द मद्रास गवर्नमेण्ट म्यूजियम, न्यू सीरिज, जनरल सेक्शन, 1, 3, 1934. मद्रास. पृ 192-94.
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