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________________ अध्याय 35 ] मूतिशास्त्र तीर्थकरों की मूर्तियाँ मणियों, धातुओं, पाषाणों, काष्ठ और मिट्टी से बनायी जाती थीं। इन द्रव्यों के चुनाव के संबंध में प्राचार-दिनकर में कुछ नियमों का विधान है । इस ग्रंथ के अनुसार मूर्ति स्वर्ण, रजत या ताम्र की बनानी चाहिए, पर कांस्य, सीसा या टिन की कभी नहीं बनानी चाहिए। कभी-कभी मूर्तियों को ढालने में पीतल (रेती) का उपयोग कर लिया जाता है, यद्यपि साधारण नियम यही है कि मिश्रित धातु का प्रयोग नहीं किया जाये । मूर्ति यदि काष्ठ को बनानी हो तो केवल श्रीपर्णी (खंभारी), चंदन, बिल्व, कदंब, लाल चंदन, पियाल, उदंबर (ऊमर) और कभीकभी शीशम का ही प्रयोग किया जाना चाहिए, किसी अन्य वृक्ष के काष्ठ का कभी नहीं । पाषाण भी सब प्रकार के दोषों से रहित हो । वह श्वेत, हलके हरे, लाल, काले या हरे रंग का हो सकता है । मिट्टी की मूर्ति के लिए गोबर ऐसा होना चाहिए जो धरती पर गिरने से पहले ही हाथ पर ले लिया गया हो, और उसमें जो मिट्टी मिलायी जाये वह भी स्वच्छ स्थान से लायी जानी चाहिए । लेप्य (चीनी मिट्टी) की मूर्ति बनाते समय उसमें कई प्रकार के रंग मिलाये जाते हैं। फिर यह विधान भी है कि अपने कल्याण का इच्छुक गृहस्थ आवास-गृह में लोहे, पाषाण, काष्ठ, मिट्टी, गजदंत या गोबर से बनायी गयी या चित्रांकित मूर्ति की पूजा न करें। वसुनंदि-श्रावकाचार में लिखा है कि जिनों तथा अन्यों (सिद्धों, प्राचार्यों आदि) की मूर्तियाँ प्रतिमा-लक्षण की विधि से मणि, स्वर्ण, रत्न, रजत, पीतल, मोती, पाषाण आदि से बनायी जानी चाहिए। बसुबिन्दु-प्रतिष्ठापाठ में इसके अतिरिक्त स्फटिक का भी विधान है और लिखा है कि ऐसी मूर्तियाँ यदि बड़े कमलासन पर विराजमान की जायें तो वे सज्जनों की प्रशंसा अजित करती हैं। ऐसी मूर्तियां स्थापित नहीं की जानी चाहिए जो सदोष हों, टूट या फूट जाने से जिन्हें जोड़ा गया हो, या फिर जो अत्यंत जीर्ण-शीर्ण हो गयी हों। आवास-गृह में स्थापित मूर्ति एक वितस्ति (बेतिया) से कुछ बड़ी होनी चाहिए। आचार-दिनकर में लिखा है कि सार्वजनिक मंदिर में बारह अंगुल से छोटी मूर्ति नहीं होनी चाहिए जबकि प्रावास-गृह में वह बारह अंगुल से बड़ी नहीं होनी चाहिए, यदि 1 प्राचार-दिनकर, भाग 2, 4 143, श्लोक 4-11. 2 प्रतिमालक्षरण-विधि नामक एक ग्रंथ का उल्लेख तो मिलता है पर उसकी कोई पाण्डुलिपि अबतक नहीं मिली, यहाँ भी उसी ग्रंथ का उल्लेख हुमा प्रतीत होता है. 3 वसुनंदि-श्रावकाचार श्लोक 390, देखिए वसुबिंदु-प्रतिष्ठापाठ, श्लोक 69, पृ 17; और भी देखिए जिन यज्ञकल्प जो जैन सिद्धांत-भास्कर (2.Y 12, में उद्धृत हुआ है : सौवर्ण राजतं चापि पैत्तलं कांस्यजं तथा। प्रावालं मौक्तिकं चैव वैडूर्यादि सुरत्नजम् । चित्र क्वचिच्चंदनजम्"। प्रतिष्ठा-सारोद्वार 1, 83, 19, इस ग्रंथ के संपादक पण्डित मनोहर लाल ने एक पाद-टिप्पणी में लिखा है: अथातः संप्रवक्ष्यामि गृहबिंबस्य लक्षणम् । एकांगुलं भवेच्छेष्ठं व्यंगुलं धन-नाशनम् ।। व्यंगुले जायते वृद्धिः पीडा स्याच्चतुरंगुले । पंचांगुले तु वृद्धिः स्यादुद्वेगस्तु षडगुले ।। सप्तांगुले गवां वृद्धिानिरष्टांगुले मता। नवांगुले पुत्रवृदिर्धननाशो दशांगुले ॥ एकादशांगुलं बिंबं सर्वकामार्थसाधकम् । एतत् प्रमाणमाख्यातमत ऊर्ध्व न कारयेत् ॥ इति ग्रंथांतरेप्युक्तम् । 485 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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