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________________ अध्याय 35 ] मूर्तिशास्त्र छठी शती ई० में कभी लिखे गये वास्तुशास्त्र मानसार ( ५५, ७१ - ९५ ) में जैन मूर्तिशास्त्र के संबंध में कुछ और विवरण हैं। जिन-मूर्ति के विषय में उसमें लिखा है कि इसके 'दो हाथ, और दो नेत्र हों, मुख पर श्मश्रु न दिखाये जायें और मस्तक पर जटाजूट दिखाया जाये ।' साथ ही, 'जिन-मूर्ति में शरीर आकर्षक (सुरूप) दिखाया जाये और उसके किसी भी भाग पर न कोई आभूषण दिखाया जाये और न कोई वस्त्र । वक्षस्थल पर श्रीवत्स लांछन स्वर्ण- खचित हो ।' मानसार में और भी लिखा है कि जिन-मूर्ति ग्रासीन बनायी जाये चाहे खड़ी, पर वह समचतुरस्र हो । दोनों पैरों में समरूपता हो और दोनों हाथ लंबे हों और एक ही मुद्रा में भी हों। आसीनमुद्रा में पैर कमलासन पर दिखाये जायें। समूची मूर्ति दृढ़ता की मुद्रा में हो और परमात्म-स्वरूप में तन्मयता की अभिव्यक्ति करती हो। दायें और बायें हाथों के करतल ऊपर की ओर हों । मूर्ति को आसन पर दिखाया जाये चाहे वह आसीन हो चाहे खड़ी मुद्रा उसके ऊपर (पीछे एक शिखराकृति और एक मकर-तोरण होना चाहिए। उसके ऊपर कल्पवृक्ष और उसके साथ गजराज तथा अन्य मूर्तियाँ होनी चाहिए । में मानसार के ही अनुसार जिन मूर्ति के परिकर में नारद तथा अन्य ऋषि और प्रार्थना की मुद्रा में देव - देवियों का समूह भी दिखाया जाये । यक्ष, विद्याधर तथा अन्य देव और चक्रवर्तियों के अतिरिक्त राजवर्ग भी उसी मुद्रा में प्रस्तुत किये जायें। नागेंद्र, दिक्पाल और यक्ष उनकी पूजा करते हुए अंकित किये जायें । एक ओर यक्ष और दूसरी ओर यक्षेश्वर को चमर डुलाते हुए दिखाया जाये । जैन मूर्तियों के अवयवों का प्रमाण दश-ताल अर्थात् सबसे बड़े मान- दण्ड के अनुसार हो । मानसार के अनुसार तीर्थंकर - मूर्तियाँ भी इसी मानदण्ड के अनुसार हों । मानसार (५५, ७१-९५ ) में दिगंबर मूर्तियों का वर्णन है, परंतु नग्नता के अतिरिक्त शेष सभी लक्षण श्वेतांबर और दिगंबर दोनों प्रकार की मूर्तियों के एक समान हैं। किसी भी जिन-मूर्ति के परिकर में किसी भी अनुचर देव का विशेषतः नारद का अंकन अबतक देखने में नहीं आया, किन्तु चमरधारी यक्ष या नाग या गजारोही, दुंदुभि वादक, विद्याधर- युगल आदि का अंकन जिन मूर्ति के साथ उस समय पर्याप्त हुआ जब वह अपने परिकर के साथ विकसित हुई । जिन मूर्ति के मुख्य लक्षण हैं अर्थात् लंबी भुजाएँ, रूपवान् और तरुण आकृति, ध्यानमग्न नासाग्र दृष्टि और वक्षस्थल पर श्रीवत्स लांछन | 1 आशाधर (१२२८ ई०) के प्रतिष्ठा सारोद्धार (१,६१-६२ ) नामक एक दिगंबर ग्रंथ में 1 सातवीं शती के प्रसिद्ध श्वेतांबर ग्रंथकार हरिभद्रसूरि ने जिन देव की उपासना अपने इस प्रचलित पद्य में की है : प्रशम-रस-निमग्नं दृष्टि-युग्मं, प्रसन्नं वदन कमलम्, अंकः कामिनी संग शून्यः । करयुगम् अपि यत् ते शस्त्र संबंधवंध्यं तद् असि जगति देवो वीतरागस् त्वम् एव ॥ Jain Education International 481 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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