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सिद्धांत एवं प्रतीकार्थ
[ भाग १
सम्प्रति के समय तीर्थकर-मूर्ति की पूजा का प्रचलन हो चुका था। जैन अनुश्रुतियों के अनुसार सम्प्रति को जैन धर्म में आर्य सुहस्ती ने दीक्षित किया था। भाष्यों और चुणियों में और वसुदेव-हिण्डी में सम्प्रति जैन धर्म का एक महान संरक्षक बताया गया है। यह दीक्षा विदिशा या उज्जैन में, संभव तो यही है कि विदिशा में, जीवंतस्वामी की मूर्ति की रथयात्रा के समारोह में संपन्न हई । कायोत्सर्ग-मद्रा में ध्यानमग्न खड़े और धोती, मुकुट तथा अन्य अलंकार धारण किये महावीर की यह मूर्ति जीवंतस्वामी की मूर्ति इसलिए कहलाती है क्योंकि काष्ठ-मूर्ति के रूप में वह उस समय गढ़ी गयी थी जब महावीर वैराग्य से पूर्व अपने महल में ध्यान-साधना किया करते थे। इससे कम-से-कम इतना प्रतीत होता है कि महावीर के जीवन-काल में एक तदाकार मूर्ति गढ़ी गयी और मौर्य सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति के समय तक उसकी पूजा भी न केवल कुछ लोगों द्वारा वरन् समस्त संघ द्वारा भी की जाने लगी थी। संभव है, इस मूर्ति ने उत्तरकालीन महावीर-मूर्तियों के लिए एक आदर्श का कार्य किया हो। किन्तु, पूजा के हेतु निर्मित सभी जैन मूर्तियों का स्वरूप एक-जैसा होता है, चाहे वह किसी भी तीर्थंकर की हो (केवल पार्श्व और सुपार्श्व की मूर्तियों के मस्तक पर सर्प की फणावली होती है)। पूज्य-मूर्ति के निर्माण का सर्वप्रथम विधान अधिक-से-अधिक ईसवी सन के प्रारंभ में हुआ हो सकता है जिसका संकेत मथरा के कंकाली-टीला से प्राप्त अनेक जैन मूर्तियों (पासीन और खड़ी) तथा बिहार में बक्सर के निकट स्थित चौसा से प्राप्त जैन कांस्य-मूर्तियों के एक समूह से मिलता है।
तीर्थंकर-मूर्तियों के मान का विधान जिन ग्रंथों में देखने में आया है उनमें वराह मिहिर की बृहत्-संहिता (५८, ४५) सबसे प्राचीन है : 'मूर्ति में अर्हतों को तरुण, रूपवान, प्रशांत व्यक्तित्व से संपन्न और वक्षस्थल पर श्रीवत्स-लांछन से युक्त दिखाया जाना चाहिए। प्राजानु-लंब भुजाओं वाला उनका शरीर दिगंबर (अर्थात् निग्रंथ या निर्वस्त्र) दिखाया जाना चाहिए।'
यह विधान स्पष्टतः दिगंबर जैन मूर्तियों के लिए है। धोती के अंकन सहित मूर्ति की पूजा वराह मिहिर के समय तक या तो आरंभ ही नहीं हुई थी या उस समय तक वह बहुत प्रचलित नहीं हुई थी (अर्थात् वह कदाचित् उसके बाद में प्रारंभ हुई)। स्पष्ट है कि मथुरा और चौसा से प्राप्त कोई भी कुषाणकालीन तीर्थंकर-मूर्ति सवस्त्र नहीं बनी।
1 संप्रति के तथा जीवंतस्वामी की मान्यता और मूर्तियों के संबंध में सभी संदर्भो के लिए देखिए उमाकांत प्रेमानंद
शाह का लेख 'ए यूनिक इमेज ऑफ़ जीवंतस्वानी', जर्नल प्रॉफ दि मोरियण्टल इंस्टीट्यूट 1, 1951-52.
पृ 72-79. 2 [प्रथम भाग में अध्याय 6 और 7 देखिए. --संपादक.] 3 [इसका मूलपाठ प्रथम भाग के 39 पर पाद-टिप्पणी में उद्धृत किया जा चुका है-संपादक.] . 4 इस विषय पर सविस्तार चर्चा के लिए देखिए उमाकांत प्रेमानंद शाह का लेख 'दि एज प्रॉफ़ डिफ़रेन्शिएशन
ऑफ़ श्वेतांबर एण्ड दिगंबर इमेजेज' बुलेटिन ऑफ़ द प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम, बंबई 1. 1950-51. पृ 30 तथा परवर्ती.
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