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________________ अध्याय 35 मूर्तिशास्त्र सिद्धांत जैन मूर्तिशास्त्र के अध्ययन के साहित्यिक स्रोत प्राचीनतम जैन शास्त्रों अर्थात् उपलब्ध अंगों और उपांगों (उनकी उत्तरकालीन टीकाएँ नहीं) के रूप में प्रसिद्ध जैन आगम साहित्य से प्रारंभ होते हैं। किन्तु जैन मूर्ति-मान या मूतिशास्त्र पर कोई स्वतंत्र आगम नहीं लिखा गया। इतना अवश्य है कि सिद्धायतनों के समूचे विवरणों में जैन मूर्तियों और मंदिरों के विषय में उल्लेख मिलते हैं। इन विवरणों में स्तूप, मान-स्तंभ आदि अन्य जैन पूज्य कृतियों का भी समावेश है। यह कहना कठिन है कि भगवती, उवासग-दसामओ, नायाधम्म-कहानो में जो अहंतों की मूर्तियों और मंदिरों के विषय में थोड़े से उल्लेख मिलते हैं वे महावीर या उनके तत्काल पश्चात् के उत्तराधिकारियों के समय के हैं।' ऐसा उल्लेख कहीं भी नहीं मिलता कि महावीर या उनके गणधरों ने किसी जैन मंदिर के दर्शन किये। इसलिए यह मान्यता संभव नहीं कि तीर्थंकर की मूर्तियों और मंदिरों के संबंध में कोई भी संदर्भ उतना प्राचीन है जितना उन पागमों का प्रारंभिक काल जिनका पुनःसंपादन चौथी शती ई० में मथुरा और वलभी की दो संगीतियों में और फिर वलभी की ही ४७० ई. की संगीति में हा था। तथापि, प्राचीन पाटलिपुत्र के एक उपनगर लोहानीपुर से प्राप्त मौर्यकालीन पॉलिश-युक्त तीर्थकर-मूर्ति, जिसके अब धड़ और पैर ही बच रहे हैं, से स्पष्ट है कि कम-से-कम अशोक के पौत्र 1 ये उल्लेख उद्धृत करने योग्य हैं: (क) गणत्थ अरिहंते वा अरिहंत-चेइया नि वा भावियप्पणो सीसाए उड्ढं उप्पयति जाव सोहंमो कप्पो (भगवतीसूत्र, 3, 2, सूत्र 145. पू 175), (ख) त एणं आणंदे गाहावई एवं वयासी। नो खलु मे भंते कप्पइ प्रज्जप्पभियि अन्न-उत्थिए वा अन्न-उत्थिय-देवयाणि वा अन्न-उत्थियपरिग्गहियाणि अरिहंत-चेइयाइं वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा (उवासगवसायो, भावनगर संस्करण, पृ 14)। इसकी टीका में अभयदेव-सूरि ने लिखा है : अन्य-यूथिक-दैवतानि वा हरि-हरादीनि । अन्य-यूथिक-परिगृहीतानि वा अर्हच्चैत्यानि । अर्हत्प्रतिमा-लक्षणानि यथाभौत-परिगृहीतानि महाकाल-लक्षणानि. पूर्वोक्त, पृ 15. यह ध्यान देने योग्य है कि उवासगदसाम्रो का यह उद्धरण जैन इतिहास के एक उत्तर कालीन चरण का है जब जैन मंदिरों को अन्य मतों ने अपनाना आरंभ कर दिया । (ग) नायाधम्म-कहानो में उल्लेख है कि द्रौपदी ने अपने गृह-चैत्य में जिन-मूर्तियों की पूजा की। किन्तु इस ग्रंथ का आज जो रूप विद्यमान है वह उस समय के बाद का है, जब ग्रंथों का श्वेतांबर और दिगंबर के रूप में विभाजन हो चुका था. 2 [देखिए प्रथम भाग में पू 74. चित्र 21-संपादक.] 479 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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