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अध्याय 34 ]
दक्षिण भारतीय मुद्राओं पर अंकित प्रतीक
मूर्तियों के मस्तक पर उसकी प्रस्तुति सामान्य रूप से की जाती है। विद्वानों ने इस ओर तनिक भी गंभीरता से नहीं सोचा कि ये प्रतीक जैन हो सकते हैं, और सामान्य प्रवृत्ति अबतक यही रही कि तीसरी-चौथी शताब्दी की पाहत तथा अन्य मुद्राओं पर अंकित जो भी प्रतीक दिखे उन्हें बौद्ध मान लिया गया, बल्कि उन प्रतीकों की प्रकृति, उनके अर्थ और उनके मूलस्थान के स्पष्टीकरण का प्रयत्न भी नहीं किया गया।
पाण्ड्य शासकों ने अपने ध्वज', मुद्राओं और मुहरों पर अंकन के लिए प्रतीक के रूप में एक या दो मछलियाँ (मीन-युग्म या मीन-युगल)स्वीकार की। संगम्-काल के तमिल साहित्य में उनका उल्लेख मीनवर के रूप में मिलता है। इस प्रतीक का वास्तविक तात्पर्य संतोषजनक रूप में अबतक नहीं समझाया गया, तथापि यह समाधान निकाला जा सकता है कि अष्ट-मंगल द्रव्यों में परिगणित जो मीन-युगल है उसी से पाण्ड्य शासकों को प्रेरणा मिली होगी जिससे उन्होंने न केवल अपनी प्रारंभिक मुद्राओं पर, प्रत्युत निरंतर सभी मुद्राओं और मुहरों पर अंकन के लिए प्रतीक के रूप में मीन-युगल को ही स्वीकार किया। यह उल्लेखनीय है कि मुद्राओं पर मीन-प्रतीक के अंकन जहाँ-जहाँ भी हुए हैं उन सब में पाण्ड्य मुद्राओं का मीन (तमिल में कयल) एक विशेष प्रकार से अंकित हुआ है।
दक्षिण भारत में बौद्ध और जैन धर्मों का इतिहास बताता है कि बौद्ध धर्म लोकप्रियता के उस स्तर तक कभी नहीं पहुँच सका जिस तक तमिल देश में, विशेषतः ईसा की प्रारंभिक शतियों में, जैन धर्म पहुंचा। प्रारंभिक तमिल समाज, उसके विचार और संस्कृति पर जैन सिद्धांतों और प्राचार का अत्यंत व्यापक प्रभाव था, इसके प्रमाण प्रारंभिक तमिल ग्रंथों में मिलते हैं जो अधिकतर जैनों द्वारा लिखे गये।
दक्षिण भारत में, विशेषतः कर्नाटक क्षेत्र और तमिल देश में, जैन धर्म का प्रसार तीसरी शती ई० पू० से आरंभ हुआ। तमिल देश में जैन मुनियों और गृहस्थों के अस्तित्व के निर्विवाद प्रमाण उन प्राचीन ब्राह्मी अभिलेखों से मिलते हैं जो दूसरी शती ई०पू० और तीसरी शती ई० के मध्य पाण्ड्य क्षेत्र में और संगम-युगीन चेर देश में उत्कीर्ण कराये गये।
पाण्ड़यों की राजधानी मदुरै और उसके समीपवर्ती क्षेत्रों में ईसा की प्रारंभिक शतियों में जैन जनसंख्या अपनी चरम सीमा पर थी। इस क्षेत्र में ग्यारहवीं शती तक अनेक जैन प्रतिष्ठान चलते रहे, यद्यपि जैन धर्म को सातवीं से नौवीं शती तक गंभीर आघात पहुँचे क्योंकि उस युग में एक ओर शैव और वैष्णव मतों में और दूसरी ओर जैन और बौद्ध धर्मों में संघर्ष चल रहे थे।
धामिक संघर्षों का यह युग पाण्ड्य देश में जैन धर्म के इतिहास में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण
1 सुब्रह्मण्यम् (एन). संगम पॉलिटी. 1966. न्यूयार्क, पृ. 77-78. 2 द्रष्टव्यः (माई) महादेवन्. कॉर्पस प्रॉफ़ तमिल ब्राह्मी इंस्क्रिप्शंस. 1966. मद्रास.
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