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________________ पुरालेखीय एवं मुद्राशास्त्रीय स्रोत [ भाग 8 है क्योंकि शैव धार्मिक साहित्य के अनुसार कूण पाण्ड्य (६७०-७१० ई०) या नेडुमारण नामक प्रारंभिक पाण्ड्य शासक मूलतः जैन था। उसे शैव साधु तिरुज्ञान संबंदर ने शैव बनाया था जिसके विषय में कहा जाता है कि उसने जैनों को धार्मिक विवादों में हराया था और अनेक चमत्कारों द्वारा शैव धर्म की 'श्रेष्ठता' सिद्ध की थी। पाण्ड्यों की राज्यसभा में जैनों को शैवों द्वारा आघात पहुँचाया गया, इतना होने पर भी इस क्षेत्र में अनेक जैन प्रतिष्ठान चलते रहे और कूण पाण्ड्य के श्रीमार श्रीवल्लभ (८१५-६२ ई.), वरगुण-द्वितीय आदि उत्तराधिकारी जैन मंदिरों, चैत्यवासों आदि प्रतिष्ठानों को संरक्षण देते रहे, जैसा कि उनके अभिलेखों में वृत्तांत है। अतएव यह मान्यता तर्कसंगत होगी कि प्रारंभिक पाण्ड्य शासकों की पूर्वोक्त मद्रानों पर अष्ट-मंगल द्रव्यों के अंकन का प्रत्यक्ष कारण यही है कि उस क्षेत्र पर जैन धर्म का प्रबल प्रभाव था । ये मद्राएँ दो वर्गों में विभक्त होती हैं : (१) गजांकित वर्ग अग्रभाग : (क) दाहिनी ओर गज और उसके सम्मुख स्थानक-सहित दीपक । (ख) गज के ऊपर अष्ट-मंगल द्रव्यों में से सात या आठों या और कम । पृष्ठभाग : मीन। (२) अश्वांकित वर्ग अग्रभाग : (क) दाहिनी ओर अश्व । ऊपर छत्रत्रय । (ख) वेदिका में वृक्ष, अन्य प्रतीक । पृष्ठभाग : मीन। जैनों में प्रचलित अष्ट-मंगल द्रव्य अर्थात् पाठ शुभ वस्तुएँ स्वस्तिक, श्रीवत्स, नंद्यावर्त, (नंदिपद), वर्धमानक (चर्णपात्र), भद्रासन (एक विशेष प्रकार का आसन या राज्यासन), कलश (पूर्णघट), दर्पण, मत्स्य या मत्स्य-युगल (दो मछलियाँ) हैं। इनका अंकन प्रायः आलंकारिक अभिप्रायों के रूप में तोरणों और बलिपट्टों पर सामान्य रूप से हुआ है। ऐसे प्रतीक मथुरा से प्राप्त कूषाण-युग के कुछ प्रायाग-पटों पर भी अंकित हैं, यद्यपि अष्ट-मंगलों की सूची उस समय तक एक रूप न ले सकी थी। ये प्रतीक पाण्डलिपियों के पत्रों और उनके किनारे की पट्टियों पर भी चित्रित किये गये। 1 पेरिय पुराणम्-स्टोरी ऑफ़ ज्ञान संबंदर । 2 द्रष्टव्य, (शाह) उमाकांत प्रेमानंद, स्टडीज इन जैन पार्ट. 1955. बनारस. ' 109-12. 3 प्रथम भाग में पृ 67 तथा परवर्ती, चित्र 15. 472 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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