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अध्याय 33 ]
अभिलेखीय सामग्री
था । 1 मध्यवर्ती गर्भालय के निर्माण की तिथि का कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु इस मंदिर के शेष विभिन्न भागों का उल्लेख उत्तरकालीन अभिलेखों में हुआ है ।
इसी काल के सबसे प्राचीन और पूर्णतया सुरक्षित स्मारकों में से एक का उल्लेख उत्तर अर्का जिले के वंदिवाश तालुक में कीजसातमंगलम् से प्राप्त अभिलेख में हुआ है । एक अन्य मंदिर यद्यपि अब सुरक्षित नहीं रह सका है किन्तु वह नंदिवर्मा पल्लवमल्ल के चौदहवें वर्ष अर्थात् ७४३-४४ ई० में सुरक्षित था। उसी स्थान का एक अन्य अभिलेख पल्लव कम्पवर्मा (नौवीं शती का उत्तरार्ध) के समय का है । इसमें उल्लेख आये हैं कि एक पल्लि और एक पालि का नवीनीकरण किया गया, पल्लि के अग्रभाग पर एक मुख मण्डप का निर्माण किया गया, इयक्किपडारि ( यक्षी भटारि ) के लिए एक मंदिर बनवाया गया और पल्लि के लिए एक विशाल कूप का दान किया गया, यह सब कार्य पल्लव राजा के सामंत काडकदियरैयर की पत्नी मादेवी ने कराया । यहाँ पल्लि और पालि शब्दों में
अंतर किया गया है वह ध्यान देने योग्य है । पल्लि का अर्थ है पूरा मंदिर समूह और पालि ब्राह्मी अभिलेखों में आये प्राचीन शब्द पालि का स्पष्टतया रूपांतर है जिसका अर्थ होता है साधुनों का विश्रामस्थल अर्थात् चैत्यवास । इससे सूचित होता है कि जैनों ने दूर एकांत में स्थित निराडंबर गुफा को सुविधासंपन्न स्थानों के रूप में कैसे बदला । इसी स्थान से प्राप्त हुए चोल राजराजप्रथम के एक अभिलेख में उक्त पल्लि का नाम विमलश्री - श्रार्य तीर्थ पल्लि दिया गया है । दक्षिण अर्का जिले के तिरुनरुन्गोण्ड के जैन अप्पाण्डनाथ मंदिर में भी एक ऐसा ही उदाहरण मिलता है । यह स्मारक अब बच नहीं रहा है अतः यह नहीं कहा जा सकता कि इसके मुख मण्डप का या इयक्कि ( यक्षी) के मंदिर ( कोयिल) का स्वरूप कैसा था । तिरुप्पमलै ( उत्तर प्रर्काट जिले के वलजा तालुक में पंचपाण्डवमलै ) के एक अभिलेख में नंदिवर्मा पल्लवमल्ल के पचासवें वर्ष ( ७८० ई०) में एक शिला को काटकर पोण्णियक्कियार (संस्कृत में हेमा यक्षी) की मूर्ति (पडिमम् ) के निर्माण का जो उल्लेख है उससे ज्ञात होता है कि यक्षी-पूजा के लिए स्वतंत्र मंदिर का प्रावधान भी किया जाता था। 4 यह मूर्ति शैलोत्कीर्ण है, किन्तु कीजसातमंगलम् का मंदिर निर्माण करके बनाया गया । उत्तर अर्काट जिले में पोलूर तालुक की तिरुमलै नामक पहाड़ी पर एक यक्षी मूर्ति की स्थापना का उल्लेख उक्त उल्लेख से भी पहले का है । वहाँ के एक अभिलेख में वृत्तांत है कि प्रदिर्गमाण् एलिनि ने एक यक्षीमूर्ति की स्थापना की और उसके उत्तराधिकारी ने बारहवीं शती में उसका नवीनीकरण किया 15 क्योंकि एलिनि के समय का ज्ञान नहीं हो सका ग्रतः मूल स्थापना की तिथि भी श्रज्ञात ही है ।
1 ट्रांजेक्शंस ऑफ दि श्रार्क यॉलॉजिकल सोसायटी ग्रॉफ साउथ इण्डिया 1958-59 पृ 41 तथा परवर्ती. / एनुअल रिपोर्ट प्रॉन इण्डियन एपिग्राफी. 1958-59, परिशिष्ट क. क्रमांक 10.
2 साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शंस, 4, क्रमांक 363 और 368. / एनुअल रिपोर्ट ब्रॉन साउथ इण्डियन एपिग्राफी 1923. क्रमांक 98.
3 एनुअल रिपोर्ट नॉन इण्डियन एपिग्राफी 1968-69. क्रमांक ख, 219-225.
4 एपिग्राफिया इण्डिका, 4, 1896-97, पृ 136-37.
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साउथ इण्डियन इंस्क्रिप्शंस, 1, क्रमांक 66-67.
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