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________________ पुरालेखीय एवं मुद्राशास्त्रीय खोत [ भाग 8 भगवती सरस्वती (अभिनंदन); सुलोचना (पद्मप्रभ); मयूरवाहिनी (सुपार्श्वनाथ); सुमालिनी (चंद्रप्रभ); बहुरूपी (पुष्पदंत); श्रीयादेवी (शीतल); वह्नी (श्रेयांस); अभंगरतिन (आभोगरत्ना?), (वासुपूज्य); सुलक्षणा (विमल); अनंतवीर्या (अनंत); सुरक्षिता (धर्म); श्रीयादेवी (शांति); पाकरब्बि (कुंथु); तारादेवी (अर); हिमावती (मल्लि); सिद्धइ (मुनिसुव्रत); हयवई (नमि); और अपराजिता (वर्धमान)। इसके साथ ही, यक्षियों के उत्कीर्ण नाम ऐसे भी हैं जो यथाशास्त्र हैं। जैन धर्म किसी सीमा तक ग्वालियर के कच्छपघात वंश के राज्यकाल में भी चलता रहा। इसकी संपुष्टि एक अभिलेख से होती है। जो विक्रम संवत् १०३४ (९७७ ई०) में राजा वज्रदामन् के राज्यकाल में ग्वालियर में निर्मित एक मूर्ति के पादपीठ पर उत्कीर्ण है । भरतपुर जिले के बयाना का एक जैन मंदिर प्रब मसजिद के रूप में विद्यमान है जिसके एक स्तंभ पर विक्रम संवत् ११०० (१०४४ ई.) का राजा विजयाधिराज (विजयपाल ?) के शासनकाल का एक अभिलेख2 उत्कीर्ण है। मोरेना जिले में दूबकुण्ड के एक ध्वस्त मंदिर में विक्रम संवत् ११४५ (१०८८ ई.) का एक अभिलेख है । कच्छपघात राजवंश के अंतिम राजकुमार विक्रमसिंह के समय के इस अभिलेख में लिखा है कि यह मंदिर अत्यंत उत्तुंग था और गाढ़े चूने से पुता हुआ था (वरसुधा-सान्द्र-द्रवापाण्डुरम्)। उसमें चंद्र-चिह्नांकित तीर्थकर चंद्रप्रभ और पंकजवासिनी अर्थात् कमल पर आसीन श्रुतदेवता अर्थात् विद्या की देवी श्वेत-पदमासना (ब्राह्मण सरस्वती से उसकी तुलना की जा सकती है) का भी उल्लेख है। कलचुरियों के राज्यकाल में जैनों के अपने मंदिर और मूर्तियाँ थीं, यह तथ्य जबलपुर जिले के बहरीबंद में स्थित शांतिनाथ की विशाल खड्गासन-प्रतिमा से प्रमाणित होता है। बारहवीं शती के पूर्वार्ध के शासक गयाकर्ण के समय उत्कीर्ण किये गये उस मूर्ति के अभिलेख में वृत्तांत है कि शांतिनाथ का एक सुंदर मंदिर बनवाया गया और एक अतिसुंदर तथा अतिधवल (महाश्वेत) छत (वितान) का निर्माण किया गया जो स्पष्टतः मूति के ऊपर रही होगा। खजुराहो के पार्श्वनाथ मंदिर में चंदेल शासक धंग के काल में उत्कीर्ण अभिलेख से प्रस्तुत अध्ययन के लिए कोई विशेष विवरण प्राप्त नहीं होता; किन्तु उसमें स्थापित एक मति पर उत्कीर्ण 1 जनरल मॉफ दि एशियाटिक सोसायटी प्रॉफ बंगाल, 31. 1882.1 393. 2 इण्डियन एण्टिक्वेरी, 14, 1885, पृ 10. 3 एपिग्राफ़िया इण्डिका, 2.1 237 तथा परवर्ती. 4 मिराशी (वासुदेव विष्णु). इंस्क्रिप्शंस मॉफ़ द कलचुरि चेदि ऐरा, कॉर्पस इंस्क्रिप्शनम् इण्डिकेरम्, 4. 1955. उटकमण्ड प 310-11. 5 एपिमाफिया इण्डिका, 1, 1892. पृ 135-36. 458 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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