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________________ अध्याय 33] अभिलेखीय सामग्री पहाड़पुर से प्राप्त गुप्त संवत् १५६ (४७६ ई०) की तिथि से अंकित एक ताम्र-पट-अभिलेख में वृत्तांत है कि वट-गोहाली में एक जैन चैत्यवास था जिसमें स्थापित देव-अर्हतों की पूजा के लिए एक ब्राह्मण ने भूमि का दान किया था और जिसके प्रमुख काशी (वाराणसी) के पंच-स्तूप-निकाय के श्रमणाचार्य गुहानंदी थे। झाँसी जिले के देवगढ़ में जैन कला का जो विशाल भण्डार है उसमें अनेक कृतियाँ अभिलिखित हैं। यहाँ लगभग चालीस जैन मंदिर और नौवीं शती तथा उसके बाद की तिथियों से अंकित लगभग चार सौ अभिलेख हैं । इनमें प्रतीहार राजा भोज के शासनकाल का विक्रम संवत् ६१६ और शक संवत् ७८४ (८६२ ई०) का एक तिथ्यंकित स्तंभ-अभिलेख है जिसमें लुप्रच्छगिर (प्राधुनिक देवगढ़) में शांतिनाथ-मंदिर के समक्ष इस स्तंभ के निर्माण और स्थापना का वृत्तांत है। इस स्थान के अन्य अभिलेखों से हमें ज्ञात होता है कि यहाँ के मंदिरों में द्वार, स्तंभ, शाला और मण्डप बनाये जाते थे । वहाँ विभिन्न व्यक्तियों द्वारा स्थापित तीर्थंकरों और प्राचार्यों की पादुकाएं (चरण-चिह्न) भी हैं। जैन मंदिरों के समक्ष मान-स्तंभ या पूजार्थ स्तंभ स्थापित किये जाते थे जिनपर तीर्थंकरों की और अन्य जैन देवताओं की लघु प्राकृतियाँ उत्कीर्ण की जाती थीं। देवगढ़ के अधिकांश अभिलेख मूर्तियों के पादपीठों पर अंकित हैं। बहुत-सी तीर्थकर-मूर्तियों की पहचान उनपर उत्कीर्ण लांछनों या परिचायक-चिह्नों से हो जाती है, जैसे शांतिनाथ की हिरण से, मल्लिनाथ की कलश से, संभवनाथ की अश्व से, पद्मप्रभ की कमल से, आदिनाथ की वृषभ से, आदि । कई बार अभिलेखों में ही तीर्थंकरों के नाम ऋषभ, पार्व, चंद्रप्रभ आदि उल्लिखित होते हैं। एक सर्वतोभद्र-प्रतिमा पर 'चतुर्मुख-सर्व-देव-संघ' का शीर्षक उत्कीर्ण है। शीर्षकों-सहित उल्लेखनीय मूर्तियाँ पुरुदेव, गोम्मट, चक्रेश्वरी, पद्मावती देवी, सरस्वती और मालिनी की हैं। जैन शास्त्रों में प्रत्येक तीर्थंकर के यक्ष और यक्षी का विधान है, जिनका यहाँ नामोल्लेख हा है। देवगढ़ के मुख्य मंदिर (क्रमांक १२) की भित्तियों पर जो तीर्थंकर-मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं उनके साथ उनकी यक्षियों की मूर्तियाँ और शीर्षक भी उत्कीर्ण हैं। यद्यपि यह उल्लेखनीय है कि यक्षियों के ये नाम न तो दिगंबर-परंपरा के अनुरूप हैं न श्वेतांबर-परंपरा के। इस विशेषता का एक उपयोग यह अवश्य है कि इससे मूर्ति-विज्ञान के अध्ययन में सहायता मिलती है, क्योंकि इनमें से एक शीर्षक के साथ तिथि, विक्रम संवत् ११२६ (१०६९-७० ई०) भी अंकित है। यक्षियों के उत्कीर्ण नाम ये हैं : 1 दीक्षित (के एन). एंपिनाफिया इण्डिका, 20, 1929-30.459-64. 2 [देखिए प्रथम भाग में अध्याय 14. -संपादक.] 3 एनुअल रिपोर्ट प्रॉन इण्डियन एपिग्राफी, 1955-56 से 1959-60 एवं 1970-71, (अप्रकाशित); एनुअल प्रॉग्रेस रिपोर्ट, प्रॉयॉलॉजिकल सर्वे ऑफ इणिया, नॉर्दर्न सर्कल, 1915, 1916, 1918. 4 [दिगंबर और श्वेतांबर परंपराओं के अनुसार इनकी नामावली के लिए देखिए प्रथम भाग में पु 15-17. -संपादक.] 457 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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