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चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प
[ भाग 7 पुरुष-मूर्ति है । ये प्राटों दिवपाल हैं । स्तूपी के नीचे उसे आश्रय देने के लिए अंतर्भाग में चार छज्जेदार गवाक्षों की संयोजना है जिनपर अत्यंत सूक्ष्म शिल्पांकन (चित्र २६६) हुआ है। उसके नीचे भित्तिमूल की भाँति चारों ओर एक पट्टी है, उसपर संयोजित देवकोष्ठों में संगीत-मण्डलियों और नर्तक-नर्तकियों के तथा उसके नीचे हंस और अन्य अलंकरण अंकित हैं।
मूर्तियां
जैन मान्यता है कि दीक्षा से एक वर्ष पूर्व एक बार जब वर्धमान अपने स्थान पर ही ध्यानमग्न थे तब, अर्थात उनके जीवनकाल में ही, उनकी एक चंदन-काष्ठ की मूर्ति बनायी गयी। यह एक अनुश्रुति है और इसके रहते हुए भी ऐसा कभी और कहीं नहीं हुआ कि काष्ठ-निर्मित एक भी तीथंकरमूर्ति प्राप्त हुई हो ; फिर यह कहना भी कठिन है कि तीर्थंकर-मूर्ति काष्ठ से बनती-बनती पाषाण या कांस्य से कब बनने लगी। किन्तु जो तीर्थंकर-पूजा में विश्वास करते हैं उन्हें इस प्रश्न का समाधान मिलते देर न लगेगी कि काष्ठ-निर्मित मूर्ति की पूजा का निषेध क्यों किया गया। जल और दुग्ध से प्रक्षाल और चंदन-चर्चण ऐसे अनुष्ठान हैं जिनके कारण पूजा के लिए काष्ठ-निर्मित मूर्ति उपयुक्त नहीं मानी जा सकती। किन्तु अन्य देव-देवियों तथा स्थापत्य के अंग के रूप में संयोजित मूर्तियाँ अवश्य काष्ठ से बनती रहीं, इसीलिए विभिन्न संग्रहालयों और निजी संग्रहों में ऐसी अनेक मूर्तियाँ विद्यमान हैं।
ऐसी अधिकांश मूर्तियाँ जैन मण्डपों, आवास-गृहों और मंदिरों के विभिन्न भागों में सत्रहवीं से उन्नीसवीं शती तक संयोजित होती रहीं, इसके पहले भी हुईं पर अब वे प्राप्त नहीं होती क्योंकि काष्ठ प्रकृति से ही इससे अधिक समय तक अक्षत नहीं रह सकता। ऐसी सभी कलाकृतियों में ये विशेषताएँ समान रूप से प्राप्त होती हैं : १-समान उपयोग के लिए निर्मित पाषाण की मूर्तियों की अपेक्षा ये आकार में लघुतर होती हैं; २-अपने मूल स्थान से पृथक् हो जाने पर ये प्रायः सभी ऐसी प्रतीत होती हैं मानो इन्हें पृथक् या स्वतंत्र रूप से ही गढ़ा गया हो; ३-इनके शिल्पांकन की यह विशेषता होती है कि इनका जो पार्श्व स्थापत्य के किसी अंग से जुड़ा रहता है उसे पर्याप्त समतल नहीं बनाया जाता; ४-साधारणतः इनपर रंग कर दिया जाता है; और ५-ये गुजरात और राजस्थान के ही किसी भाग में प्राप्त होती हैं इसलिए इनमें वहाँ की क्षेत्रीय विशेषताएँ उपलब्ध होती हैं। इस क्षेत्र के शुष्क वातावरण ने इन्हें अब तक सुरक्षित रहने में सहायता की । इन तथ्यों का विश्लेषण करने के लिए हम यहाँ कुछ जैन काष्ठमूर्तियों की चर्चा करेंगे।
प्रायः सभी जैन मण्डपों पर नारी-मूर्तियों के संदर शिल्पांकन होते हैं, वे या तो विविध संगीतवाद्य बजा रही होती हैं (रेखाचित्र २६) या नृत्य की विविध मुद्राओं में होती हैं (चित्र २६८) ।
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(शाह) उमाकांत प्रेमानंद. स्टडीज इन जैन पार्ट. 1955. बनारस.' 4-5. बौद्धों में भी एक ऐसी ही अनुश्रुति है, प्रानंदकुमार कुमारस्वामी. हिस्ट्री पॉफ़ इण्डियन एण्ड इण्डोनेशियन मार्ट. 1965. न्यूयार्क. 43.
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