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________________ अध्याय 32] काष्ठ-शिल्प हिन्दू मंदिर की ही भाँति जैन मंदिर के दो भाग होते हैं-मण्डप, जिसमें भक्त एकत्र होते हैं और मुख्य मंदिर अर्थात् गर्भालय जिसमें इष्टदेव की स्थापना होती है। इनमें से मण्डप महत्त्वपूर्ण है क्योंकि पाषाण तथा काष्ठ पर कला के भव्य और विविध शिल्पांकनों को पर्याप्त स्थान वहीं मिलता है। जार्ज वाट की धारणा तो यहाँ तक बनी कि 'अलंकरण की कला का व्याकरण वास्तव में केवल काष्ठ-शिल्प के अध्ययन से ही लिखा जा सकता है, और जो यह संयोग बन पड़ा है कि काष्ठ-शिल्पी और पाषाण-शिल्पी एक ही जाति के होते हैं वह इस तथ्य की और भी पुष्टि करता है कि एक प्रकार के शिल्प ने दूसरे प्रकार के शिल्प को जब-तब स्वरूप प्रदान किया, और यह तथ्य भी कोई बहुत प्राचीन नहीं है।" जैन मंदिर का निर्माण अधिकतर किसी एक ही मध्यम श्रेणी के धनिक व्यक्ति के दान से हुआ होता है, यही कारण है कि ये कृतियां साधारणतः लघु आकार की हैं और उनमें वह आनुपातिक भव्यता नहीं आ सकी है जो एक देव-प्रासाद में होनी चाहिए। यद्यपि इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि जैनों ने साज-सज्जा को अपने आवास-गृहों में ही अधिक स्थान दिया जबकि महत्त्व वे मंदिर को ही अधिक देते रहे। मण्डप की संयोजना पंक्तिबद्ध स्तंभों पर होती है, वे तोरणों और धरनों को आश्रय देते हैं जिनपर विस्तृत अलंकरण होते हैं और उनपर सुंदर सुरुचिपूर्ण शिल्पांकित स्तूपी आधारित होती है । मण्डप में सर्वत्र निरंतर शिल्पांकन होते हैं। समान अंतर पर स्थित और तोरणों से परस्पर-संबद्ध बारह स्तंभों पर एक वृत्ताकार स्तूपी की संयोजना होती है । मदल-सहित शीर्ष और बडेरियाँ बाद में बनाये जाने लगे जिन्होंने भवन की स्थापत्य संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति तो की ही, काष्ठ पर सुंदर शिल्पांकन के लिए अत्यंत उपयुक्त स्थान भी उपलब्ध कराया। पाटन का वादि-पार्श्वनाथ-मंदिर एक सर्वोत्तम काष्ठ-कलाकृति है जो अब न्यूयॉर्क के मेट्रोपॉलिटन संग्रहालय में सुरक्षित है। लगभग १८६० ई० में जब बर्जेस और कज़िन्स ने उत्तरी गुजरात के पुरावशेषों का सर्वेक्षण किया तब यह १५६४ ई० की कलाकृति पाटन के झवेरीवाड मोहल्ले में थी, बाद में उसे मेट्रोपॉलिटन संग्रहालय ने प्राप्त कर लिया। इसमें छत के स्थान पर एक ३.४ मीटर ऊँची स्तूपी है जिसका व्यास ३.३ मीटर है। उसपर आकृतियों से अंकित वृत्ताकारों की चतुर्दिक पंक्तियाँ और अलंकरणों की पट्टियाँ हैं और उसके अंतर्भाग के मध्य में एक कमलाकार लोलक बनाया गया है। अंतर्भाग में चारों ओर समान अंतर पर संयोजित आठों मदलों पर प्राकृतियाँ हैं। इनमें नारी-संगीत-मण्डलियाँ और नर्तकियाँ हैं और प्रति दो मदलों के मध्य एक अनुचरों-सहित पासीन 1 जार्ज वाट. इण्डियन आर्ट एट डेल्ही. 1903. दिल्ली. पृ 100. 2 बर्जेस (जेम्स) और कज़िन्स (हेनरी). दि पाकिटेक्चरल एण्टिक्विटीज पॉफ़ नार्दन गुजरात, प्रॉक्यॉलॉजिकल सर्वे प्रॉफ़ इण्डिया, न्यू इम्पीरियल सीरीज, 9, 1903. लंदन. 1 49. 447 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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