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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 1 है जैसे वह कोई पादपीठ हो, उसपर ऊपर की ओर क्रमश: लघुतर होते सोपानों-की-सी संयोजना के अंतर्गत लघु देव-कोष्ठिकानों में गजलक्ष्मी की आकृति और पूर्ण-कुंभों के अंकन हैं । चौदह स्वप्नों और अन्य मंगल-चिह्नों के पालेखन भी हैं। यह मण्डप निश्चित रूप से अकबर के समय का, अर्थात् १६०० ई० का माना जा सकता है। इस मान्यता का आधार है-वेश-भूषा और शिल्पांकन की शैली। बड़ौदा संग्रहालय और चित्र-वीथि, बड़ौदा में भी एक सुंदर काष्ठ-निर्मित गह-मंदिर है।। गोयेत्ज़ ने विश्वासपूर्वक लिखा है कि वास्तव में यह मण्डप भड़ौंच-क्षेत्र के किसी धनाढ्य जैन व्यापारी के आवास-गृह का एक भाग था। यह ६.६ मीटर लंबा ३.३ मीटर चौड़ा और ३.१ मीटर ऊंचा है। वह छह स्तंभों और दो भित्ति-स्तंभों पर आधारित है और अब चारों ओर से खुला है। ३.३ मीटर के चार तोरणों पर आधारित वर्गाकार पीठ पर एक अष्टकोणीय भाग है जिसपर मध्यवर्ती स्तूपी की संयोजना है। दोनों पंक्तियों की छतें समतल हैं। स्तंभों की चौकियां बहुत उत्तरकालीन मुस्लिमशैली की हैं और उनके शीर्ष उत्तरकालीन गुजराती शैली के। भित्ति-स्तंभों पर केवल कमल-मण्डलों की सघन पंक्तियाँ हैं। मध्यवर्ती स्तूपी के चारों ओर संयोजित तोरणों पर शिल्पांकित पट्टियाँ हैं जिन पर जैन पौराणिक कथाएँ अंकित हैं, जैसे पार्श्ववर्ती छतों पर विभिन्न शैलियों और कालों के अलंकरण हैं जिनमें एक मयूर है । अन्य छतों पर केवल एक प्राकृति-पट्टी है जिसमें लक्ष्मी या अंबिका का अंकन है। अलंकृत शैली में उत्कीर्ण कमल-पंखुड़ियों से बने दो वृत्ताकारों पर निर्मित मध्यवर्ती स्तूपी पर बड़ी संख्या में अलग-अलग मूर्तियाँ और शिल्पांकन-पट्टियाँ उत्कीर्ण हैं, उनमें से कुछ तो मौलिक रूप से थीं और कुछ बाद में जोड़ी गयी हैं। इनमें सामान्य अलंकरण ही दुहराये गये हैं, जैसे संगीतवाद्य बजाती हुई देवियाँ, नारियाँ, जन-समूह (चित्र २६५ क), दिक्पाल, अप्सराएँ और दिव्य नर्तक-नर्तकियाँ, जैन साधुओं की पूजा (चित्र २६५ ख) आदि । इस मण्डप के निर्माण में एकरूपता नहीं है क्योंकि इसमें समय-समय पर परिवर्तन, जीर्णोद्धार और संवर्धन होते रहे और इनमें भी एक ने दूसरे के रूप-निर्धारण में मौलिक प्रभाव छोड़ा। पूरे मण्डप को दो वर्गों में विभक्त किया जा सकता है--पहले निर्मित हुआ गर्भालय वाला भाग जो सोलहवीं शती के उत्तरार्ध और सत्रहवीं शती के पूर्वार्ध की कृति है; और शेष भाग जिसका निर्माण उन्नीसवीं शती के सातवें या पाठवें दशक में बड़ौदा के महाराजा खाण्डे राव (१८५६-७० ई०) और महाराजा मल्हार राव (१८७०-७५ ई०) के शासनकाल में हुआ। पाषाण से या काष्ठ से निर्मित प्रत्येक जैन मंदिर के चारों ओर सामान्यतः प्राचीर होता है जिसके अंतर्भाग पर तीर्थंकरों के देवकोष्ठ बनाये जाते हैं । इस प्रकार वर्षा और पानी से मंदिर के मुख्य भाग की सुरक्षा हो जाती है। इस प्रवृत्ति का विशेष लाभ यह हुआ कि कुछ काष्ठ-निर्मित मंदिर वातावरण की प्रताड़ना से बचे रहे और वे आज भी हमारे समक्ष विद्यमान हैं। 1 गोयेज़ (एच). 'ए मॉन्यूमेण्ट ऑफ़ अोल्ड गुजराती बुड स्कल्पचर', बुलेटिन माफ़ द बड़ौदा म्यूजियम एण्ड पिक्चर गैलरी, 6, भाग 1-2. 1950. बड़ौदा. पृ2. 446 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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