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चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प
[ भाग 7 जाती। गवाक्षों की चौखटें प्रथम तल पर अपेक्षाकृत कम अलंकृत होती पर द्वितीय तल पर उनमें विविध प्रकार के सुंदर अलंकरण उत्कीर्ण किये जाते । कुछ स्थानों पर आजकल की भाँति गवाक्ष भी बने जिनके कपाटों को इच्छानुसार खोला या बंद किया जा सकता । किन्तु अधिकांश स्थानों पर ऊपरी तल के गवाक्षों को कपाटों के बिना ही बनाया गया ताकि वायु और प्रकाश का प्रवेश निर्बाध हो सके । काष्ठ-निर्मित जाली में पुष्पावली आदि सुंदर अलंकरण उत्कीर्ण किये जाते और बीच-बीच में छिद्रित स्थान भी छोड़े जाते जिनसे वायु और प्रकाश का प्रवेश होता। ऐसे गवाक्षों का प्रचलन पाटन और उसके समीप बहुत रहा।
मुस्लिम प्रभाव जैन स्थापत्य पर भी पड़ा इसीलिए घरों में मेहराबदार गवाक्षों की संयोजना हुई। ऐसी एक उन्नीसवीं शती का गवाक्ष (चित्र २८५) राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली (प्राकार १८०४१२८ सेण्टीमीटर ; प्रविष्टि क्रमांक ६०.११५२) में प्रदर्शित है। इस गवाक्ष की चौखट पर लहराती पुष्पावली और पट्टियाँ और बीच-बीच में मनुष्यों और पशनों की आकृतियाँ अंकित हैं। ऊपर की पट्टी में एक तीर्थंकर-मूर्ति एक मंदिर में विराजमान दिखाई गयी है जिसकी ओर बहुत-से व्यक्ति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए बढ़ रहे हैं। मेहराब पर उत्कीर्ण प्राकृतियों के पंख दिखाये गये हैं, यह भी मुस्लिम प्रभाव के कारण है। ऊपर की पट्टी पर मनकेदार अलंकरणों का अंकन है जो इस काल की सामान्य विशेषता है।
ऊपर के तल को आधार देने वाले स्तंभ या तो एक ऊँचे अोत्ता (अधिष्ठान) पर बनाये जाते या वे भित्ति का ही अंग बना दिये जाते । वे अधिकतर चतुष्कोणीय और कहीं-कहीं गोल या नालीयुक्त और कभी-कभी शुण्डाकार होते । सुंदर शुण्डाकार स्तंभ मुस्लिम स्थापत्य के प्रभाव से बने। ऊपर के तल को आधार देने वाले तोरणों और धरनों पर बंदनवारों, कमल-पुष्पों, शृंग-पट्टियों और पत्रावली के शिल्पांकन हुए। अधिकांश घरों में छज्जे बनाये गये जिनसे भित्तियों की एकरसता कम हुई और एक तल से दूसरे तल का अंतर स्पष्ट हुआ । नीचे के तल पर कोई अलंकरण नहीं होता, केवल मालाओं से अंकित पट्टियाँ या नालीयुक्त स्तंभ या साधारण अलंकार-सहित मदल होते । किन्तु नीचे के तल के द्वार-कपाट और चौखट सामान्य रूप से अत्यधिक अलंकृत होतीं जिनसे शेष भाग की अलंकारहीनता की पूर्ति हो जाती।
अहिंसा के उपासक होने से जैन प्रायः कपोतों को दाना चुगाते हैं और पक्षियों की रक्षा करते हैं। यही कारण है कि गुजरात में किसी भी जैन स्थान पर काष्ठ-निर्मित पाराबाडी या कपोतों का दरबा अवश्य होता है जिसमें कपोतों, गौरय्यों, शुकों, मयूरों आदि परिचित पक्षियों को पानी और दाना रखा जाता है। कुछ पाराबाडियों पर तो अत्यंत सुंदर शिल्पांकन होता है और वे काष्ठ की लघु मूर्तियों से अलंकृत होती हैं। इन पाराबाडियों पर मुस्लिम स्थापत्य का प्रभाव रहा, उनपर गंबद और मदल बनाये गये, यद्यपि उनका आकार छोटा ही रहा ।
1 वही, चित्र 82, 83.
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