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अध्याय 32 ]
काष्ठ-शिल्प अग्रभाग होते हैं। समूचा भवन एक ऊँची चौकी पर निर्मित होता है, उसके सामने एक लघु 'प्रोत्ता' (अधिष्ठान) होता है जिसके ऊपर पाषाण की चौकियों पर खड़े स्तंभों पर आधारित दूसरा तल होता है । सामने की भित्ति की रचना काष्ठ के कई स्तंभों से होती है जिनके मध्य का अंतर ईंटों से भर दिया जाता है। एक आवास-गृह में अलंकरण के लिए जो भाग उपयुक्त माने जाते हैं, वे हैं-स्तंभ, गवाक्षों और द्वारों की चौखटें, सरदल, टोड़े, तोरण, छतें, भित्तियों पर निर्मित पट्टियाँ आदि । जिस व्यक्ति के पास थोडे-से भी साधन होंगे वह अपने घर में कम-से-कम स्तंभों पर या द्वार अथवा गवाक्ष की चौखट पर अलंकरण अवश्य कराना चाहेगा। इन अलंकरणों का विस्तार गृहस्वामी की आर्थिक क्षमता के अनुसार बढ़ता जाता है।
गुजरात और उसके समीप के बहुत बड़े क्षेत्र में जैन घरों में काष्ठ का प्रयोग हुआ, जिससे काष्ठ-शिल्पी को कला के विभिन्न रूप और प्रालेखन प्रस्तुत करने का अवसर मिला; इनमें समयसमय पर परिवर्धन और परिष्कार भी होता रहा क्योंकि इस क्षेत्र की कला और स्थापत्य को विभिन्न शैलियों ने प्रभावित किया। पाषाण-शिल्पी ने उन सब अभिप्रायों को प्रात्मसात् किया जो पहले काष्ठ-शिल्प में प्रचलित थे ; इसके विपरीत, पाषाण और ईंट की निर्माण-कला में जिनका विशेष स्थान था--ऐसी स्तूपी और तोरण को काष्ठ-कला में न केवल स्वीकार किया गया बल्कि उनका सफलता से निर्माण भी किया गया। एक जैन घर की अत्यंत उल्लेखनीय विशेषता के रूप में मदल या टोड़ा एक ऐसा शिल्पांकन है जिसकी कोई उपमा नहीं। मदल के अंकन में काष्ठ-शिल्पी को कौशल-प्रदर्शन का सर्वाधिक अवसर मिला क्योंकि उसके अंकन में जितनी गहराई तक कटाव आवश्यक होता है उतना केवल काष्ठ में ही संभव है । पुष्पावली आदि की पट्टियों, पशुओं, पक्षियों, मानव-प्राकृतियों और देव-देवियों की कल्पनामय संयोजना की आड़े-तिरछे ज्यामितिक रेखांकनों के मध्य संगति बिठाना एक ऐसी विशेषता है जो काष्ठ-कला में ही उपलब्ध होती है, जो मदल के शिल्पांकन से व्यक्त होती है । मदलों का उपयोग, निस्संदेह. मंदिरों में भी किया जाता है किन्तु वहाँ उनपर केवल विविध वाद्यों के साथ दिव्य संगीत-मण्डलियों और शास्त्रीय नृत्यों की विभिन्न मुद्राओं में नर्तक-नर्तकियाँ ही शिल्पांकित की जाती हैं।
समूचा निर्माण इस प्रकार संयोजित किया जाता कि कला और उपयोगिता में समन्वय हो जाता, वातावरण की विषमताएँ नियमित हो जातीं, रहन-सहन की अनुकूलता भी बनी रहती और गहस्वामियों की आर्थिक परिस्थिति भी बाधक न बनती। स्थापत्य के द्वार, गवाक्ष, स्तंभ, धरन और मदल ऐसे अंग हैं जिनपर काष्ठ-शिल्पी ने अपने कौशल को मूर्त किया। द्वार-कपाटों को काष्ठ की पाडी-खड़ी मोटी पट्टियों से इस प्रकार विभक्त किया जाता कि चतुष्कोणीय या आयताकार खण्ड बन जाते । द्वार-कपाट कभी समतल होते, कभी उनपर शिल्पांकन होता और कभी उन्हें जालीदार बनाया जाता । गवाक्ष या तो भित्ति के साथ-साथ ही बनाये जाते या उनकी संयोजना अलग से की
। त्रिवेदी (पार के). वुड काविंग प्रॉफ गुजरात. 1965. बड़ौदा. चित्र 22-27.
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