________________
अध्याय 31]
लघुचित्र कारण यह है कि वे दोनों भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में चित्रित हुई हैं । इन दिगंबर और श्वेतांबर पाण्डुलिपियों के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पंद्रहवीं शताब्दी में पश्चिम-भारतीय अथवा गुजराती शैली में क्षेत्रीय प्रवृत्तियों के अनुरूप परिवर्तन का आना प्रारंभ हो गया था। जहाँ इन्होंने अपने मूलभूत तत्त्व और विशिष्ट चारित्रिक गुणों को सुरक्षित बनाये रखा है वहीं स्थापत्यीय संरचनाओं, प्रांतरिक साज-सज्जा के उपादानों, रथों, वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं की आलंकारिक अभिकल्पनाओं आदि के अंकन में स्थानीय प्रभाव स्वयं अपना स्थान ग्रहण कर गया है। और यही वह स्थानीय शैली थी जिसने इस तथ्य की उपेक्षा करके कि चित्रित की जाने वाली पाण्डुलिपि हिंदू है या मुसलमान, जैन है या बौद्ध, उस क्षेत्र की पाण्डुलिपि को चित्रित करने के लिए अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में कार्य किया । इसीलिए बाल-गोपाल-स्तुति की हिंदू पाण्डुलिपि उसी शैली में चित्रित है जिस शैली में गुजरात में कल्प-सूत्र की श्वेतांबर जैन पाण्डुलिपि चित्रित हुई है। और इसी प्रकार उत्तर-भारत में चित्रित दिगंबर पाण्डुलिपियाँ शैलीगत रूप में उसी शैली के अनुरूप हैं जिसे सुलतान लोदी-समूह की पाण्डुलिपियों की शैली की संज्ञा दी गयी है।
ये श्वेतांबर और दिगंबर सचित्र पाण्डुलिपियाँ परस्पर मिलकर मुगल-पूर्वकाल की प्रचलित कला-प्रवृत्तियों को भली-भाँति समझने की दिशा में बहुमूल्य सूत्र उपलब्ध कराती हैं तथा इन प्रवृत्तियों के विभिन्न विकासों तथा उसके विस्तार को समझने और भारतीय चित्रकला के इतिहास में इनके महत् योगदान पर प्रकाश डालने में अद्वितीय रूप से सहायक सिद्ध होती हैं।
सरयू दोशी
439
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org