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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 1 के लिए अत्यंत निर्णायक प्रतिक्रिया सिद्ध हई। पश्चिम-भारत की चित्र-शैली में इसका प्रभाव मानवप्राकृतियों और उनकी वेश-भूषा के अंकन में देखा जा सकता है । यह प्रभाव अनेक पाण्डुलिपियों के चित्रों में स्पष्ट परिलक्षित है जिनमें मतर में सन् १५८३ में चित्रित संग्रहणी-सूत्र और सन् १५९६ की चित्रित यशोधर-चरित पाण्डुलिपि (रंगीन चित्र ३७) की प्रमुख रूप से गणना की जा सकती है। इसी प्रकार की प्रवृत्ति यशोधर-चरित की एक अन्य सचित्र पाण्डुलिपि में भी परिलक्षित होती है जो कछवाहा राजपूतों की राजधानी आमेर में सन् १५६० में चित्रित हुई (चित्र २८३ ख)। यद्यपि दिगंबर जैन पाण्डुलिपियाँ श्वेतांबर जैन पाण्डुलिपियों की अपेक्षा संख्या में अत्यंत अल्प हैं तथापि यह मानने का कोई कारण नहीं है कि दिगंबर संप्रदाय ने धर्म के मान-मूल्यों के संवर्धन के लिए श्वेतांबरों का अनुकरण किया । इसका वास्तविक कारण संभवत: यह हो सकता है कि अन्य संप्रदायों की अपेक्षा श्वेतांबर जैन धार्मिक अभिव्यक्ति के इस ढंग के प्रति कहीं अधिक अनुरक्त थे। हिन्दू, बौद्ध, दिगंबर जैन, मुसलमान, इनमें से कोई भी संप्रदाय अकेले या सब मिलकर भी श्वेतांबरों की इन प्रचुर-संख्यक पाण्डुलिपियों की तुलना नहीं कर सकते । पाण्डुलिपियों की संख्या के अंतर के अतिरिक्त, दिगंबर और श्वेतांबर जैन परंपराएँ, चित्रित कराने हेतु मूलपाठों के चयन में पर्याप्त भिन्न रही हैं। तीर्थंकरों के जीवन-चरित्रों का अंकन दोनों संप्रदायों के चित्रों का लोकप्रिय विषय रहा है परंतु श्वेतांबरों में इसने सामान्यतः कल्प-सूत्र का रूप ग्रहण किया है, और दिगंबरों में महा-पुराण का। इसी प्रकार श्वेतांबरों ने जहाँ उत्तराध्ययनसूत्र को चित्रित कराया है वहाँ दिगंबरों ने चित्रित कराने के लिए यशोधर-चरित का चयन किया है । इससे ज्ञात होता है कि इनका चयन स्पष्टतः संप्रदायगत मूल्यों द्वारा निर्धारित हुआ है। ऐसे किसी ग्रंथ या पाण्डुलिपि को, जिसे अन्य संप्रदायों में भी मान्यता प्राप्त है, प्रत्येक संप्रदाय में बार-बार चित्रित कराया गया है। उदाहरण के लिए, जहाँ हिन्दुओं ने बाल-गोपाल-स्तुति की कथा को चित्रित कराया है वहाँ सलतनत-मुस्लिम-परंपरा में सिकंदर-नामा और हम्जा-नामा की चित्रित कराया गया है। इन अंतरों के उपरांत भी जब उन दोनों संप्रदायों के सामने एक ही विषय-वस्तु को चित्रित करने के लिए शैली के चयन का प्रश्न उठा है तो उन दोनों संप्रदायों ने स्वयं को उसी शैली पर निर्भर किया है जो उस काल के अंतर्गत उस क्षेत्र-विशेष में प्रचलित रही है । यही कारण है कि सन् १४६४ की चित्रित दिगंबर पाण्डुलिपि यशोधर-चरित श्वेतांबर संप्रदाय की पाण्डुलिपियों से, जो पश्चिमभारत की 'समृद्ध शैली' में चित्रित है, भिन्न नहीं जान पड़ती। यदि सन् १४६४ की चित्रित यशोधरचरित की पाण्डुलिपि यशोधर-चरित की दूसरी पाण्डुलिपि से भिन्न दिखाई देती है तो इस भिन्नता का 1 मोतीचंद्र एव शाह, पूर्वोक्त, 1968, 4367-68. 2 खण्डालावाला एवं मोतीचंद्र, पूर्वोक्त, 1969, पृ 69. 438 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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