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अध्याय 31 ]
लघुचित्र फलकों की रूपरेखा के आलंकारिक अभिप्राय भी सम्मिलित हैं, चौर-पंचासिका-समूह के चित्रों के अनुरूप है।
पादि-पुराण की प्रारंभिक तिथि-रहित पाण्डुलिपि भी चौर-पंचासिका-समूह के चित्रों से कुछ समानताएँ रखती है। आदि-पुराण की पाण्डुलिपि तथा सन् १५४० की महा-पुराण की पाण्डुलिपि -इन दोनों पाण्डुलिपियों के समूहगत साक्ष्य यह संकेत देते हैं कि ये दोनों उस विकसित शैली की उदाहरण है जो चौर-पंचासिका-शैली में प्रस्फुटित हुई। इससे आगे ये पाण्डुलिपियाँ यह भी संकेत देती हैं कि चौर-पंचासिका की शैली का उद्गम उस चित्रकला में निहित है जो उत्तर-भारत में प्रचलित थी।
दिल्ली और उसके निकटवर्ती क्षेत्र में चित्रित इन समस्त सचित्र पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण हमें अकबर से पूर्व अर्थात् लोदी-वंश के शासनकाल के अंतर्गत इस क्षेत्र में विकसित चित्रकला की शैली के विषय में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध कराता है। इसके अतिरिक्त यह भी तथ्य हमारे सामने स्पष्ट है कि यद्यपि समसामयिक पश्चिम-भारत की शैली से पृथक् इस शैली की निजी विशेषताएं हैं तथापि वह उससे संबद्ध रही है। जब हम उत्तर-भारत की चित्र-शैली की तुलना पश्चिम-भारत की चित्र-शैली से करते हैं तो ज्ञात होता है कि उत्तर-भारत की चित्र-शैली के चित्र एक बहुत बड़ी संख्या में पाण्डुलिपि-चित्रों के रूप में रचे गये हैं और उनकी रचना अनावश्यक रूप से दोहरायी गयी है। पृष्ठ पर चित्र और लिखित सामग्री के संयोजन में पश्चिम-भारत के चित्रों की अत्यंत प्रौपचारिक व्यवस्था-शैली की अपेक्षा उत्तर-भारत के चित्रों की व्यवस्था-शैली कम बाधक है तथा पश्चिम भारतीय विशेषता से कहीं अधिक खोजपरक है। इन चित्रों का चित्र-संयोजन जीवंत है। मानवप्राकृतियों की वेश-भूषा, स्थापत्य और उसकी अंतर-साजसज्जा आदि विषय के चित्रण में दोनों शैलियों में स्थानीय विशेषताओं को स्थान प्राप्त हुआ प्रतीत होता है।
उत्तर-भारत की शैलीगत विशेषताएं चित्रांकन में नये अाकारों के समावेश और चित्र-संयोजन की उपयूक्त विधियों के साथ प्रयोग करके, शैली के रूप में उसके विकास में सुदृढ़ प्रगति प्रस्तुत करती रही है। इसके विपरीत, पश्चिम-भारत की शैली ने, यद्यपि वह वैभव एवं लालित्यपूर्ण है, अपने निजी ढांचे के अंतर्गत ही विकास किया, जिसके फलस्वरूप वह निःसत्त्व और गतिहीन होकर रह गयी।
सन् १५५६ में अकबर दिल्ली के सिंहासन पर बैठा और उसके द्वारा किये गये सांस्कृतिक विकास ने, जो उसके शासनकाल की एक विशेषता बन गया था, इस काल में चित्रात्मक अभिव्यक्ति
। इस काल में चित्रित्येकाचे सांस्कृतिक
1 वही, चित्र 21 एवं रेखाचित्र 190, 191, 195. 2 खण्डालावाला एवं मोतीचंद्र, पूर्वोक्त, 1974.
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