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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 1 अतः उनके अनुसार दूसरे वर्ग के चित्र लगभग सन् १५२० और १५४० के मध्यवर्ती किसी काल में चित्रित हुए हैं। उत्तर-भारत में प्रचलित उस शैलीगत प्रवृत्ति के, जिसे पहले आदि-पुराण (दुसरे वर्ग के चित्र) में देखा जा चुका है, निरंतर प्रवहणशील विकास का प्रमाण पालम (दिल्ली के निकट) सन् १५४० की प्रणीत तथा चित्रित महा-पुराण की सचित्र पाण्डुलिपि के चित्रों में देखा जा सकता है। यह इसके चित्रों की योजना से स्पष्ट है; यद्यपि इस समय आकार का संयोजन कहीं अधिक विस्तृत हो गया था । इसके कई चित्र समूचे पृष्ठ के आकार के हैं और कई चित्र लंबे क्षतिजिक चित्र-फलक के रूप में पृष्ठ को भी पार कर गये हैं। इसमें अधिकांशतः चित्र पृष्ठ को दायीं अथवा बायीं ओर अंकित हैं । कहीं-कहीं चित्र पृष्ठ की दायीं और बायीं दोनों ओर चित्रित हैं तथा कहीं-कहीं पृष्ठ के मध्य में । रेखांकन में कुछ दुर्बलताएँ भी पायी जातो हैं, इनमें रेखाएँ अपनी पूर्ववर्ती लयात्मक गति को खो चुकी हैं। इसके उपरांत भी चित्रांकन निपुणतापूर्ण है और उसमें गत्यात्मकता है (चित्र २८४) । रंग-योजना में अधिक से अधिक रंगों को सम्मिलित किया गया है तथा चित्रों पर वानिश भी की गयी है। कई चित्र-फलकों को मिलाकर बड़े आकार के चित्रों का संयोजन किया गया है। इन चित्रों की विषय-वस्तु में धर्म-निरपेक्ष संदर्भो के अंकन की बढ़ती हुई प्रवृत्ति देखी जा सकती है। मानव-प्राकृतियों और उनकी वेश-भूषा का अंकन उसी प्रकार का पूर्ववत् रहा है जो उत्तरभारत की परंपरा में चित्रित पहले की पाण्डुलिपियों में देखा जा चुका है। पुरुषों की माकृतियों के अनेक चेहरों में जबड़े की रेखा तथा ऊपरी होंठ के ऊपर उसी प्रकार के रंग का प्रयोग किया गया है जिस प्रकार का आदि-पुराण के पहले वर्ग के चित्रों में देखा जा चुका है। बैठने की मुद्रा में परिवर्तन के अतिरिक्त मानव-आकृति के अंकन में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। दृश्य-चित्रों, स्थापत्यीय अभिप्रायों, रथों और सिंहासनों का अंकन पूर्ववर्ती पाण्डुलिपियों की भाँति प्रचलित परंपरा के अनुसार ही किया गया है । आम के वृक्ष, परकोटे-युक्त नगर तथा मण्डपों में बैठे हुए नगरवासियों का अंकन इन चित्रों में पहली बार हुआ है, जिन्हें इन चित्रों की नवीनता में परिगणित किया जा सकता है (चित्र २८४)। यह पाण्डुलिपि उत्तर-भारतीय चित्रों की शैली के विकास में एक चरम बिंदु प्रस्तुत करती है। इसके साथ ही इसे चौर-पंचासिका-समूह की पाण्डुलिपियों की शैली से संबद्ध भी माना जा सकता है क्योंकि उस समूह की पाण्डुलिपियों के चित्रों की भांति इसमें बहुविधि रंग-योजना का उपयोग हुआ है और इसकी मानव-आकृतियों के पार्श्व-दृश्य में अंकित चेहरे तथा उनकी मुद्राएँ भी उस समूह के चित्रों के समान हैं । दृश्य-चित्रों और स्थापत्य-संरचनाओं का अंकन, जिसमें तीर के 1 वही, पृ 69-78. 436 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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