________________
अध्याय 31 ]
लघुचित्र सामान्यतः अंकन पाया गया है - ठीक इसी प्रकार का अंकन चौर-पंचासिका पाण्डुलिपि-समूह के चित्रों में भी पाया जाता है ।।
आदि-पुराण के तीसरे एवं अंतिम वर्ग के चित्र शताब्दियों पश्चात् चित्रित किये गये हैं तथा ये चित्र अत्यंत निम्न श्रेणी के हैं।
यद्यपि वर्ग एक एवं दो के चित्र शैलीगत रूप में परस्पर कुछ भिन्नताएँ रखते हैं और वे दोनों अपनी निजी समान विशेषताएँ भी रखते हैं, तथापि उन दोनों का उत्तर-भारतीय कला की विशेषताओं से साम्य सरलता से पहचाना जा सकता है। दोनों में चौर-पंचासिका पाण्डुलिपि-समूह के चित्रों से भी कुछ समानताएं हैं यद्यपि इनके अभिप्राय भिन्न हैं। दूसरे वर्ग के चित्र पहले वर्ग के चित्रों की अपेक्षा चौर-पंचासिका से कहीं अधिक समानता रखते हैं। इस प्रकार इस पाण्डुलिपि के माध्यम से इसके चित्रों की शैली और चौर-पंचासिका-समूह के चित्रों की उस शैली के मध्य पारस्परिक संबंध स्थापित किया जा सकता है जो उत्तर-भारत में विद्यमान थी।
उत्तरी क्षेत्र में चित्रित अन्य पाण्डुलिपियों की अपेक्षा आदि-पुराण की कहीं अधिक परिष्कृत शैली एक ऐसे प्रमुख केंद्र की ओर अंगुलि-निर्देश करती हैं जहाँ पर ये पाण्डुलिपियाँ चित्रित हुईं। संभवत यह केंद्र दिल्ली था । सन् १४४२ की पासणाह-चरिउ तथा सन् १४५४ की जसहरचरिउ की शैली से इस पाण्डुलिपि के चित्रों की शैलीगत समानताओं के आधार पर निरीक्षण करने पर प्रतीत होता है कि प्रथम वर्ग के चित्र दूसरे वर्ग के चित्रों की अपेक्षा पहले चित्रित हुए हैं। यह पाण्डुलिपि संभवतः लगभग सन् १४५० में चित्रित हुई है। दूसरे वर्ग के चित्र, जो पहले वर्ग के चित्रों के उपरांत चित्रित हुए, रंग-योजना तथा अभिप्रायों की अवधारणा में उत्तरी शैली से घनिष्ठ रूप से संबद्ध और मानव-आकृति के अंकन, दृश्य-चित्रण तथा स्थापत्यीय अंकन में सन् १५१६ की आरण्यक-पर्वन की पाण्डुलिपि से संबद्ध हैं। इन समानताओं के आधार पर इसके लिए लगभग सन १४७५ की तिथि निर्धारित की जा सकती है। इस पाण्डुलिपि के दोनों वर्गों के चित्र शैलीगत आधार पर जो परस्पर भिन्नता रखते हैं वह अधिक से अधिक पच्चीस वर्ष की कालावधि की भिन्नता प्रतीत होती है। खण्डालावाला के मतानुसार इन वर्गों के चित्र परस्पर पृथक्-पृथक् निजी विशेषताएं रखते हैं इसलिए इन दोनों वर्गों के चित्र पर्याप्त लंबे कालांतर में, भिन्न-भिन्न कालों में चित्रित हुए हैं। उनके सुझाव के अनुसार, पहले वर्ग के चित्र पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध अर्थात लगभग सन् १४७५-१५०० में चित्रित हुए हैं और दूसरे वर्ग के चित्र लगभग सन १५४० के चित्रित महा-पुराण, जिसका विवरण आगे दिया जायेगा, के रचनाकाल के आसपास चित्रित हए हैं।
1 रंगीन चित्र 36 ग, घ तथा चित्र 282 ख, 28 3 क की तुलना खण्डालावाला, एवं मोतीचंद्र पूर्वोक्त, 1968,
चित्र 16, 20, 21, 23 तथा रेखाचित्र 187, 189, 191, 194, 199 से कीजिए. 2 रंगीन चित्र 15 ग, घ तथा चित्र 282 ख, 283 क की तुलना पूर्वोक्त, चित्र 13-16 से कीजिए
435
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org