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________________ चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प [ भाग 7 मुख्यतः नीले, श्वेत और फीके हरे रंग का प्रयोग हुआ है। रेखांकन अधिक दक्षतापूर्ण है, तथा उसमें आलोड़ित लय तथा सौंदर्य है जो अबतक इस परंपरा में नहीं पाया गया था (रंगीन चित्र ३६ ग, घ ) । इस चित्र समूह में सर्वाधिक उल्लेखनीय परिवर्तन मानव आकृतियों की अंकन विधि में पाया गया है । इस प्राकृतियों में चेहरे का पार्श्व दृश्य अंकित किया गया है जो विशेष रूप से चौकोर है। इनमें विस्फारित आँखों का अंकन नहीं है। मानवाकृतियाँ अनेकानेक मुद्राओं में हैं। योग-पट्ट को अपने घुटनों के पास रखे बैठी हुई मुद्रा में मानव आकृति का अंकन इस काल में इस शैली की एक सुस्पष्ट विशेषता बन गयी थी । पुरुषों को इन चित्रों में धोती और उत्तरीय जैसी प्राचीन परंपरागत वेश-भूषा में दर्शाया गया है या फिर जामा और पैजामा-जैसी फारसी - शैली की सुलतानी नयी वेश-भूषा में ( रंगीन चित्र ३६ ग ) । इन पोशाकों के साथ या तो ऊँची उठी हुई गोल टोपी के आगे पगड़ी या फिर सादा अथवा जालीदार कुलाह के चारों और लपेटकर बँधी पगड़ी पहने हुए दिखाया गया है ( चित्र २८२ ख ) । महिलाओं को उसी प्रकार की साड़ी पहने हुए अंकित किया गया है जिस प्रकार वे इससे पूर्व के पाण्डुलिपि - चित्रों में पहने दिखायी गयी हैं । इनके निदर्शन में मात्र एक नया तत्त्व झुमके का अंकन सम्मिलित किया गया है ( रंगीन चित्र ३६ ग ) । इनमें दर्शाये गये वस्त्र प्रायः मोटे प्रकार के हैं जो सामान्यत: श्वेत हैं और उनपर किसी प्रकार की अभिकल्पना नहीं है । दृश्य-चित्रों का अंकन उत्तर-भारतीय परंपरा के अनुरूप है जिसमें पत्तियों के एक बड़े समूह से युक्त वृक्ष का अंकन सन् १४५४ की चित्रित जसहर चरिउ के अंकन जैसा है; परंतु इसका अंकन कहीं अधिक संवेदनशील और आकर्षक है । कहीं-कहीं तो वृक्ष के पत्तों के समूह के चारों ओर पीले और श्वेत तारे दर्शाये गये हैं । स्थापत्यीय अंकन में मण्डप की संरचना पूर्व की भाँति रही है जिसकी बाह्य संरचना में धारीदार या लहरदार गुंबद अथवा स्तूपिका- युक्त सपाट छतरी प्रदर्शित है । कहीं-कहीं छतरी के किनारे के साथ पंक्तिबद्ध कंगूरे अंकित हैं । मण्डप की आंतरिक सज्जा में छतरी का उपयोग किया गया है जो छतों से छल्लों में बँधे हुए दिखाये गये हैं । इसके नीचे पलंग अंकित जिनपर कहीं-कहीं श्रायताकार गद्दे बिछे हुए दिखाई देते हैं (चित्र २८३ क ) । धर्म-संबंधी विषय-वस्तु को सामान्य रूप में रूपायित करने की प्रवृत्ति इस शैली में विकसित एक ऐसी उल्लेखनीय विशेषता है जो इस पाण्डुलिपि में परिलक्षित होती है । समसामयिक चित्रों की अनेक विशेषताओं को पाण्डुलिपियों के एक समूह में भली-भांति देखा जा सकता है । पाण्डुलिपियों के इस समूह को चौर - पंचासिका-समूह के नाम से जाना जा सकता है । इस समूह के चित्रों में मानव प्रकृतियों की अवधारणा को प्रमुख स्थान मिला है। इनमें उपरोक्त पाण्डुलिपि की भाँति चौकोर चेहरे का अंकन हैं जिसमें चित्रित आँखें लंबी और बड़ी-बड़ी हैं, तथा योग- पट्ट को अपने घुटनों के पास रखकर बैठे हुए मानव की आकृति भी समान मुद्रा में चित्रित है । वेश-भूषा में भी कुछ समानताएँ मिलती हैं जिनमें महिलाओं द्वारा पहने गये झुमके जैसे आभूषणों का सूक्ष्मांकन भी सम्मिलित है। उपरोक्त पाण्डुलिपि में वृक्ष के पत्तों के चारों ओर तारों का चित्रण, रथ एवं मण्डप का आकार, उनके गुंबद एवं कंगूरे तथा प्रांतरिक सज्जा आदि का जिस प्रकार Jain Education International 434 For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001960
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size24 MB
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