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अध्याय 31]
लघुचित्र
तिरछे रूप में होकर जाता हुआ दर्शाया गया है। वस्त्रों की अभिकल्पना में धारियाँ या अनगढ़ रूपरेखाएं अंकित हैं । दृश्य-चित्रों को काल्पनिक रूप से अंकित किया गया है (रंगीन चित्र ३६ ख) । उदाहरण के लिए, वृक्षों को उनके तनों से लिपटी हुई लताओं के साथ प्रदर्शित किया गया है; वृक्षों के पत्तों के मध्य पक्षियों या बंदरों को बैठे हुए दर्शाया गया है। पत्तियों की नसों को पीले या लाल रंग में चित्रित किया गया है और उन्हें सामान्यतया पंक्तियों या वृत्ताकार रूपाकारों में व्यवस्थित किया गया है। पर्वतों के अंकन में चट्टानों को सपिल शीर्ष से युक्त दर्शाया गया है। पर्वतों के मूल-भूत अंकन से इन्हें भिन्न रूप में अंकित किया गया है। कहीं-कहीं इन पर्वतों को घटाकर अर्धवृत्ताकार चट्टानों को एक-दूसरे के ऊपर चिने हुए रूप में अंकित किया गया है तथा कहीं-कहीं चट्टानों को मैदानी क्षेत्र में फैले हुए रूप में भी दर्शाया गया है। बादलों को विद्युत् की चमक के साथ सजीव रूप से अंकित किया गया है। इस पाण्डलिपि के चित्रों के चित्र-फलकों में सर्वप्रथम विशुद्ध प्राकृतिक दृश्यों का अंकन किया गया है। स्थापत्यीय अंकन में नीची सतह वाली छतों तथा जालीदार दीवारों से युक्त मण्डप की बाह्य संरचनाओं को प्रदर्शित किया गया है।
__ इस पाण्डुलिपि के चित्रों से यह स्पष्ट है कि उत्तर-भारतीय परंपरानों के अंतर्गत परिभाषित होते हुए भी इसकी शैली जीवंतता और नवीनता-शोधी प्रवृत्तियों के कारण उनसे पृथक् विशिष्टताएँ रखती है । इससे भी अधिक रोचक एक तथ्य यह है कि इस पाण्डुलिपि की कुछ विशेषताओं की समानता चौर-पंचासिका आदि पाण्डुलिपियों के विवाद-ग्रस्त समूह के चित्रों में देखी जा सकती हैं। इन विशेषताओं के अंतर्गत रंग-योजना की व्यापकता, पुरुषाकृति के चेहरे पर जबड़े की रेखा के साथ रंगप्रयोग की विशेषता तथा योग-पट्ट को अपने घुटनों के पास रखे बैठी हुई मुद्रा में पुरुषाकृतियों का अंकन और वृक्षों की पत्तियों की नसों का लाल और पीले रंग से अंकन आदि की गणना की जा सकती है। परंतु इससे कोई सुनिश्चित निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।
इस पाण्डुलिपि के दूसरे वर्ग के चित्र यद्यपि शैलीगत मूलभूत आधार पर पहले वर्ग के चित्रों के समान हैं तथापि ये उनसे कुछ भिन्नता रखते हैं। इनमें प्रयुक्त रंग-योजना सीमित है जिसमें
1 इस समूह में चौर-पंचासिका सीरीज़ (नगरपालिका संग्रहालय, अहमदाबाद), लौर-चंदा की पाण्डुलिपि जिसका
कुछ भाग लाहौर संग्रहालय में तथा कुछ भाग चण्डीगढ़ संग्रहालय में विभाजित है, भागवत्-पुराण सीरीज के कुछ पृथक्-पृथक् पृष्ठ, भारत कला भवन स्थित मृगावत की पाण्डुलिपि, मैनचेस्टर की राइलैण्ड्स लाइब्रेरी की लौर-चंदा पाण्डुलिपि, तथा प्रिंस ऑफ़ वेल्स म्यूजियम की लौर-चंदा पाण्डुलिपि, सन् 1540 की चित्रित महापुराण की पाण्डुलिपि, बांबे एशियाटिक सोसाइटी की सन् 1516 की चित्रित प्रारण्यक-पर्वन, विजयेंद्र-सूरि-रागमाला, प्रिंस ऑफ़ वेल्स संग्रहालय स्थित गीत-गोविंद की सचित्र पाण्डुलिपियाँ सम्मिलित हैं। इन समस्त सचित्र पाण्डुलिपियों का विश्लेषण मोतीचंद्र एवं काल खण्डालावाला ने पूर्वोक्त, 1969, पृ 64-109 पर प्रस्तुत किया है, तथा 'एन इलस्ट्रेटेड पारण्यक पर्वन् मॉफ़ दि एशियाटिक सोसाइटी' 1974, बंबई, में इस समूह के चित्रों की
शैली के लिए 'लोदी-चित्र-शैली' नाम दिया गया है। 2 रंगीन चित्र 35 क, ख और चित्र 282 के की तुलना मोतीचंद्र एवं खण्डालावाला, पूर्वोक्त, 1969, चित्र
16, 20, 21 से कीजिए.
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