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चित्रांकन एवं काष्ठ-शिल्प
[ भाग 7
सन् १४५० रहा होगा, यद्यपि यह विवाद ग्रस्त है। सिकंदर-नामा प्रादि पाण्डुलिपियों के समूचे समूह तथा उनके साथ चौर - पंचासिका श्रादि पाण्डुलिपियों के समूह को खण्डालावाला एवं डॉ. मोतीचंद्र ने गत वर्ष सन् १९७४ में बंबई से प्रकाशित 'एन इलस्ट्रेटेड प्रारण्यक पर्वन ऑफ दि एशियेटिक सोसाइटी' शीर्षक अपनी पुस्तक में उस समूह में वर्गीकृत किया जिसे उन्होंने चित्रकला की 'लोदीशैली' के नाम से अभिहित किया है। उन्होंने सिकंदर-नामा, हम्जा-नामा और लौर-चंदा के रचनाकाल के लिए पंद्रहवीं शताब्दी के अंतिम पच्चीस वर्ष के समय को प्राथमिकता दी है परंतु इसके साथ ही उन्होंने यह भी सुझाव दिया है कि पंद्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध की कोई तिथि भी उनके यथार्थ समय के आस-पास हो सकती है ।
आदि-पुराण की एक अन्य पाण्डुलिपि भी उपलब्ध है जिसके चित्र अपनी एक निजी शैली में अंकित हैं; तथापि, यह पाण्डुलिपि उत्तर-भारत की चित्र परंपरा से संबद्ध है । यह पाण्डुलिपि वैसे तो पूर्ण है परंतु इसके अंतिम भाग में चित्रांकन नहीं हो पाया है। चित्रों के लिए छोड़े गये निर्धारित स्थान रिक्त ही रह गये हैं । उत्तर भारतीय चित्र परंपरा की अन्य पाण्डुलिपियों की भाँति इस पाण्डुलिपि की चित्र- योजना में विभिन्न आकार-प्रकार के अनेकानेक चित्र सन्निहित हैं। इस पाण्डुलिपि में यद्यपि अधिकांश पृष्ठों के दायीं अथवा बायीं ओर चित्र अंकित हैं तथापि कुछ पृष्ठों पर चित्रों का नियोजन रोचक है जिसके अंतर्गत लिखित मूलपाठ और अंकित चित्र के मध्य एक पारस्परिक संबंध दिखाई पड़ता है । इससे उस प्रकार के प्रयास का उद्घाटन होता है जो फारसी पाण्डुलिपियों में देखा गया है ( रंगीन चित्र ३६ क, चित्र २८२ क, ख एवं २८३ क ) | प्रतीत होता है कि चित्र छोटेछोटे फलकों में अंकित किये गये थे जो बाद में एक-दूसरे से जोड़ दिये गये हैं (चित्र २८२ ख ) ।
इस पाण्डुलिपि के सचित्र पृष्ठों को शैलीगत आधार पर सकता है । पहले वर्ग में पृष्ठ १ से ३६ तक, दूसरे वर्ग में ४० से से १७७ तक के चित्र रखे जा सकते हैं । दूसरे और तीसरे वर्ग है कि इन्हें पहले वर्ग के अनुवर्ती किसी काल में पूर्ण करने का प्रयास किया गया है ।
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पहले वर्ग के चित्रों की शैली से ज्ञात होता है कि इस पाण्डुलिपि में मात्र रंग योजना को छोड़कर शेष में उत्तर भारतीय शैली का निर्वाह किया गया है । इन चित्रों की रंग-योजना पूर्ववर्ती चित्रों से कहीं अधिक विस्तृत है और रेखांकन कहीं अधिक शैलीगत एवं रीतिबद्ध हो गया है । मानवाकृतियाँ आकर्षक हैं और उनके चेहरे अधिक कोणीय हैं ( रंगीन चित्र ३६ क चित्र २८२ क ) । पुरुषों के चेहरे पर जबड़े की रेखा के साथ दूसरे रंग का प्रयोग चेहरे पर दाढ़ी होने का संकेत प्रदर्शित करता है (चित्र २८२ क ) । पुरुषों को ऊँची धोती, असामान्य रूप से कम लपेटा हुआ उत्तरीय एवं ऊँची पगड़ी पहने हुए दर्शाया गया है। कहीं-कहीं पुरुषों को जामा और ऊंचे जूते पहने हुए भी दिखाया गया है । नारी आकृति में उन्हें साड़ी पहने हुए चित्रित किया गया है जिनमें उनकी साड़ी की चुन्नटें बाहर की ओर निकली हुई हैं तथा साड़ी का पल्ला उड़ती हुई पट्टी के रूप में वक्षस्थल पर
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तीन वर्गों में विभाजित किया जा १६० तथा तीसरे वर्ग में पृष्ठ १६१ चित्रों से संभवत: ऐसा प्रतीत होता
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