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प्रध्याय 20 ]
उत्तर भारत
उत्कीर्ण करने के लिए कहा था । एक जैन ग्रंथ के अनुसार, अभनेरी के एक व्यापारी ने प्रोसिया के महावीर तथा सच्चिकामाता के मंदिर में पूजा की थी ।
सभी आकारों में पद्मासन तथा कायोत्सर्ग-मुद्राओं में, सादे तथा अलंकृत परिकरों से युक्त अनेक तीर्थंकर-प्रतिमाओं का निर्माण किया गया। उन्हीं के साथ इतर देवों, पशुओं एवं कभीकभी तीर्थंकरों की अपेक्षाकृत छोटी आकृतियाँ भी बनायी गयीं । पद्मानस्थ तीर्थंकरों को साधारणतया सिंहासन पर अंकित किया गया है तथा उनके साथ अलंकृत पीठोपधान बनाये गये हैं जिनमें अलंकृत समचतुर्भुजी कला-प्रतीक तथा कपड़े की झालरें हैं (चित्र १४८ ख से १५०)। सर्वतोभद्र प्रतिमाओं के अतिरिक्त चौबीसों तीर्थंकरों की मूर्तियों से युक्त शिलापट्ट (चित्र १५०) भी जैन समाज में लोकप्रिय थे। मंदिरों में तीर्थंकरों के कल्याणकों (जीवन के दृश्यों) का भी चित्रण किया गया। इस युग की बाहुबली की भी कुछ प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं। देवियों में अंबिका, सरस्वती या वाग्देवी, चक्रेश्वरी और पद्मावती की पूजा सर्वप्रचलित थी। प्रोसिया की देवकुलिकाओं में नरदत्ता, गौरी, रोहिणी, महामानसी, वज्रांकुशी, वज्रशृंखला, गांधारी, अप्रतिचक्रा, मानवी, काली, वैरोट्या आदि अनेक विद्यादेवियों की प्राकृतियाँ हैं। जैन मंदिरों में अप्सराओं, दिग्पालों, नवग्रहों, गंधर्वो तथा विद्याधरों को भी स्थान मिला। भक्तों, जिनमें जैन आचार्य भी सम्मिलित हैं, के अतिरिक्त, यक्ष और अन्य परिवार-देवता भी सामान्यतया आवरण-प्रतिमाओं में सम्मिलित किये गये। ओसिया की एक देवकुलिका में हेरम्ब का भी चित्रण है जो संभवतः ब्राह्मण्य मत से अपनाया गया है। रोहतक में हस्ति-शीर्षयुक्त यक्ष पार्श्व की एक मूर्ति पायी गयी है. जो जैन मत में गणेश का निकटतम समानांतर उदाहरण है। अंबिका का पूजन शायद संतति और बच्चों के कल्याण के लिए किया जाता था । जैन देव-दंपति, जिन्हें भट्टाचार्य ने गोमेध और अंबिका के रूप में पहचाना है, ग्यारहवीं शताब्दी तक पर्याप्त लोकप्रिय हो गये, ऐसा प्रतीत होता है। क्षेत्रपाल (मंदिर, नगर या ग्राम का रक्षक), जिसकी चर्चा भी पद्मा, अंबिका, ज्वालिनी और नागधरण के साथ ही साथ बिजोलिया के शिलालेख (विक्रम संवत् १२२६)3 में की गयी है, को जैन देवकुल में महत्त्वपूर्ण ढंग से जोड़ लिया गया। जिन शिलापट्टों पर नंदीश्वर द्वीप आदि यंत्र (पारेख) उत्कीर्ण किये जाते थे, वे भी उपास्य वस्तु बन गये।
विस्तृत क्षेत्र में विकीर्ण होते हुए भी, चाहमान और गाहड़वाल-युग की जैन मूर्तिकला पर अनेक कला-प्रवाहों तथा परंपराओं का प्रभाव पड़ा था किन्तु उनमें कम से कम सामान्य संकल्पना के संबंध में धार्मिक सिद्धांतों ने पर्याप्त सीमा तक एकता स्थापित की थी। मंदिर-स्थापत्य के अपेक्षाकृत अधिक विकास के कारण सौंदर्यात्मक आदर्श को शास्त्रीय मानदण्डों के विपरीत, स्वीकार किया
1 पूर्वोक्त, 4 277. 2 भट्टाचार्य (बी सी) जैन माइकनोग्राफो. 1939. लाहौर. पृ 82. 3 एपिप्राफिका इण्डिया, पूर्वोक्त, पृ 110.
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