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________________ वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई० [ भाग 5 एक मध्यकालीन ( मुस्लिम - पूर्व ) जैन मंदिर के अवशेष प्रतरंजीखेड़ा' या जैन ग्रंथों के अतरंजीय नामक नगर में किये गये उत्खनन में पाये गये थे । उसमें एक गर्भगृह और पार्श्ववर्ती खण्ड थे, तथा वह संभवतः सुपार्श्वनाथ का मंदिर था, जैसा कि उत्खनन के समय वहाँ प्राप्त प्रतिमा से ज्ञात होता है । हस्तिनापुर में कुछ दशाब्दियों पूर्व प्राप्त शांतिनाथ की एक विशाल प्रतिमा पर ११७६ ई० का एक शिलालेख है, जिसमें यह उल्लेख है कि यह प्रतिमा अजमेर के देवपाल सोनी ने दान में दी थी । कायोत्सर्ग - मुद्रावाली यह प्रतिमा हस्तिनापुर में किसी नवनिर्मित या जीर्णोद्वार किये गये मंदिर में प्रतिष्ठित की गयी थी । हरद्वार में तीर्थंकरों तथा यक्षियों की जो जैन मूर्तियाँ मिली हैं, उनसे यह संकेत मिलता है कि मध्यकाल में इस ब्राह्मण्य तीर्थ में भी जैन मंदिर थे । आगरा के निकट चंदवार से प्राप्त ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दियों की दस-बारह से अधिक मूर्तियाँ निस्संदेह यह प्रमाणित करती हैं कि गाहड़वाल- युग में इस स्थान पर कम से कम एक विशाल जिनालय का निर्माण हुआ होगा । जैसाकि पहले कहा जा चुका है ( पृ० २५३), बटेश्वर में भी इस युग के कुछ ईंट - निर्मित भवनों तथा जैन मूर्तियों के अवशेष पाये गये हैं । कंकाली-टीले की अभिलेखांकित एवं अनभिलेखांकित जैन मूर्तियों से भी इस युग में मथुरा में जैन संस्थानों की विद्यमानता का पता चलता । इस नगर में श्वेतांबर और दिगंबर दोनों ही के मंदिर थे । मूर्तिकला और कला इस युग में जैन कला अपने विकास के सर्वाधिक जटिल और रूपात्मक चरण से होती हुई निकली । कलात्मक और मूर्ति निर्माणात्मक विकास में शिल्पियों एवं उनके संरक्षकों के अतिरिक्त भ्रमणशील जैन मुनियों तथा व्यापारियों ने महत्त्वपूर्ण योगदान किया। ऐसा प्रतीत होता है कि अनेक पंथों और उपपंथों ने भी कला के लिए अनुकूल कारण प्रदान किये। तंत्र और तांत्रिक प्रतीकवाद ने भी, जिनका जैन धर्म में पहले ही प्रवेश हो चुका था, मूर्ति निर्माण संबंधी संकल्पनाओं की वृद्धि में और अधिक सहायता की । कभी-कभी जैनों ने भी ब्राह्मण्य देवताओं को अपने अनुकूल बना लिया और उनकी उपासना की 12 बारहवीं शताब्दी के अंत तक, एक ब्राह्मण्य देवता को भी -- जिसके संबंध में यह विश्वास किया जाता है कि उसने दिल्ली में प्रसिद्ध जैन मुनि जिनचंद्रसूरि की प्रेरणा से माँस को अपनी अर्चना में न लेने का व्रत ले लिया था -- प्रतिबल के नाम से उक्त स्थानीय पार्श्वनाथ मंदिर के एक स्तंभ पर स्थान दे दिया गया । वास्तव में, मुनि ने स्वयं ही अपने अनुयायियों को इस स्तंभ पर उक्त देवता की प्राकृति 1 इण्डियन प्रायॉलॉजी, 1967-68 : ए रिव्यू. नई दिल्ली. पृ. 46. 2 यह महत्त्वपूर्ण बात ध्यान देने योग्य है कि एक पूर्ववर्ती जैन विद्वान् जिनसेनाचार्य ने अपने जिन सहस्रनाम - स्तोत्र में तीर्थंकर की समता शिव के अंकांतक, अर्धनारीश्वर, सद्योजात, वामदेव, अघोर तथा ईशान रूपों, विष्णु के लक्ष्मी भर्तृ, श्री पति, सहस्रशीर्षं तथा पुराण- पुरुष रूपों, ब्रह्मा के महाब्रह्म, हिरण्यगर्भ और पितामह जैसे समानरूपी नामों, गणाधिप, विश्वकर्मा तथा वाचस्पति या बृहस्पति से की है. परमानंद. जिनवाणी संग्रह. 1961. दिल्ली. पृ 287. इसी प्रकार के विचार मानतुंग के प्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र में भी पाये जाते हैं. 3 ( द्विवेदी) हरिहरनिवास. दिल्ली के तोमर 1973. ग्वालियर. पु 87. Jain Education International 254 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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