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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई० [ भाग 5 आमेर में भण्डारकर को तीन ऐसे जैन मंदिरों का पता चला जो मूल रूप से जैन मंदिर थे, किन्तु बाद में उन्हें शिव मंदिरों का रूप दे दिया गया। इनमें से सबसे प्राचीन लालशाह-का-मंदिर जान पड़ता है । इसमें गूढ़-मण्डप सहित तीन मंदिर एक दूसरे के निकट स्थित हैं। मंदिर तथा मण्डप के सरदलों और चौखटों पर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। यहाँ सांगानेर स्थित सिंघीजी के मंदिर का भी उल्लेख करना आवश्यक है । इस भवन के महत्त्वपूर्ण अंग सुरक्षित रह पाये हैं। इस मंदिर की महत्त्वपूर्ण विशेषताओं में हैं-दो बड़े कक्ष, शिखर-युक्त गर्भगृह, सुसज्जित द्वार और मूत्यंकन-युक्त अंत:भाग, जिसमें देवताओं की आकृतियाँ तथा अलंकरण-प्रतीक अंकित हैं। इसमें चाहमान-युग की पाषाण-प्रतिमाएँ तथा शिलालेख हैं। इससे पश्चिमी राजस्थान एवं गुजरात के चौलुक्य-मंदिरों का स्मरण हो आता है। जो भी हो, भण्डारकर ने उसे परवर्ती काल का माना है। अलवर जिले के नीलकण्ठ नामक स्थान में, जिसका उल्लेख पूर्ववर्ती काल के मंदिर-अवशेषों तथा मूर्तियों के संदर्भ में ऊपर किया जा चका है (अध्याय १४), इस काल के मूर्ति-युक्त वास्तु-खण्ड भी विद्यमान हैं (चित्र १४८ क), जिनपर पश्चिमी भारत का कुछ प्रभाव है। दिल्ली या ढिल्लिका चाहमान-काल में एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक और धार्मिक केंद्र था । यहाँ अनेक जैन मंदिर थे, जिनमें पार्श्वनाथ का एक विशाल मंदिर भी था। कुव्वतुल-इस्लाम-मस्जिद के अवशेषों के दक्षिण-पूर्वी कोने में एक जैन मंदिर के स्पष्ट अवशेष हैं, जिसमें सादे स्तंभ तथा अर्ध-स्तंभ पंक्तिबद्ध निर्मित किये गये हैं और जिनमें से कुछ पर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। इसके ऊपरी तल पर तीर्थंकरों, सेवकों तथा पशुओं की चित्र-वल्लरी से युक्त अलंकृत छतें अब भी सुरक्षित हैं। जो भी हो, वास्तु-अवशेषों तथा मूर्तियों से यह संकेत मिलता है कि दिल्ली में और भी सुंदर जैन मंदिर थे। हांसी (आसिका) में भी जैनों के धार्मिक प्रतिष्ठान बनाये गये थे, ऐसा प्रतीत होता है। चाहमान-युग के अंत में इनमें जो एक और वद्धि हई, वह थी पार्श्वनाथ-जिनालय की। जिनपति-सूरि ने उसकी प्रतिष्ठा की थी । पिंजौर (पंचपुर) में, जो चाहमान-राज्य में सम्मिलित था, बीकानेर-क्षेत्र की मूर्तियों के सदृश जैन अवशेष तथा अन्य खण्डित वस्तुएँ पायी गयी हैं, जिनसे यह आभास मिलता है कि मध्यकाल में वहाँ जैन मंदिर थे । कांगड़ा के किले में भी अनेक जैन प्रतिमाएं पायी गयी हैं, जिनसे यह धारणा बनती है कि पश्चिमी हिमालय की पहाड़ियों के अंतःवर्ती क्षेत्र में भी जैन मंदिर विद्यमान थे। अनेक जिनालयों के सामने संभवत: मान-स्तंभ हुआ करते थे और सर्वतोभद्र जैन प्रतिमाएँ इन मान-स्तंभों के शीर्ष का काम देती होंगी। 1 प्रायॉलॉजिकल सर्वे प्रॉफ़ इण्डिया. (वेस्टर्न सकिल), प्रोग्रेस रिपोर्ट, 1909-10, ₹ 47. 252 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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