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________________ अध्याय 20 ] उत्तर भारत है कि लोलिग या लोल्लक ने, जो पोरवाड़ महाजन था, पार्श्वनाथ का एक मंदिर तथा उसके साथ सात छोटे मंदिर बनवाये थे। यह संभव है कि इन सात देवकुलिकाओं में से चार मंदिर-प्रांगण के चारों कोनों में बनवायी गयी हों तथा शेष उसकी तीन भुजायों में से प्रत्येक के केंद्र में निर्मित की गयी हो । संभवतः मुख्य मंदिर के सामने एक द्वार रहा होगा। यह बात ध्यान देने योग्य है कि बिजोलिया में पंचायतन प्रकार का एक पार्श्वनाथ-मंदिर है, जिसपर किसी तीर्थयात्री ने विक्रम संवत १२२६ (११६६ ई.) का यात्रा-वृत्तांत उत्कीर्ण कर दिया है। किन्तु उसका शिल्प-कौशल उच्च कोटि का न होने के कारण विद्वान् उसे लोलक या लोलिग द्वारा निर्मित नहीं मानते । पुरालेख में यह भी कहा गया है कि लोल्लक के पूर्वजों ने टोडारायसिंह, भगेरा, नरैना, नरवर और अजमेर में जैन मंदिरों का निर्माण कराया था। उपर्युक्त मंदिरों में से कोई भी मंदिर इस समय विद्यमान नहीं है किन्तु इन स्थानों में से अधिकांश स्थलों पर पायी जानेवाली मध्यकालीन जैन प्रतिमाएँ तथा अन्य अवशेष यह सूचित करते हैं कि इनका महत्त्व जैन तीर्थों के रूप में था। चाहमान-युग के एक जैन मंदिर के अवशेष मारवाड़ के जैन तीर्थ फलोधी, (प्राचीन फलवधिका) में भी पाये गये हैं । यहाँ लगभग ११४७ में पार्श्वनाथ का एक मंदिर बनाया गया था, उसकी प्रतिष्ठापना वादिदेव-सूरि ने करायी थी। शीघ्र ही मुस्लिम आक्रामकों ने इसे नष्ट कर दिया किन्तु बाद में संभवतः इसका जीर्णोद्धार किया गया है । यह विचार व्यक्त किया गया कि जीर्णोद्धार-उत्सव जिनपालसरिने संपन्न कराया था। मंदिर में पड़े हुए एक संगमरमर-खण्ड पर उत्कीर्ण अभिलेख (विक्रम संवत् १२२१) में यह उल्लेख है कि फलवधिका स्थित पार्श्वनाथ-मंदिर को चण्डक ने, तथा पोरवाड़ रोपिमनि और भण्डारी दसाढ़ ने श्री-चित्रकूटीय-शिलाफट का दान किया था। एक अन्य पुरालेख में सेठ मनिचंद्र द्वारा उत्तान्न-पट्ट के निर्माण का उल्लेख किया गया है। इसमें संदेह नहीं कि फलोधी स्थित मंदिर में परवर्ती जीर्णोद्धार और पुनःप्रतिष्ठा (चित्र १४५) के चिह्न विद्यमान हैं, तथापि उसमें अपनी अनेक संरचनात्मक विशेषताएँ सुरक्षित रह सकी हैं, यथा मूल-प्रासाद, द्वार-मण्डप और गढ़मण्डप । यह बारहवीं शताब्दी के विकसित मंदिरों के वर्ग में आता है और उसके पश्चिम-भारतीय तत्त्व सुस्पष्ट हैं। मण्डप अपेक्षाकृत सादगीपूर्ण है किन्तु मूल-प्रासाद की संरचनात्मक विशेषताएँ आकर्षक हैं। कुछ विद्वानों का यह मत है कि अजमेर स्थित मस्जिद, अढ़ाई-दिन-का-झोंपड़ा, मूल रूप से एक जैन मंदिर था । अपने मत के समर्थन में वे यह विचार प्रकट करते हैं कि इस मस्जिद के पास और उसके भीतर जैन मूर्तियां पायी गयी थीं। कुछ लोग उसकी पहचान उस जैन मठ से करते हैं जो राज-विहार के नाम से विख्यात था तथा जिसपर विग्रहराज ने झण्डा फहराया था। कज़िन्स ने इस मत का यद्यपि दृढ़ता से खण्डन किया है, तथापि यह स्वीकार किया जा सकता है कि मस्जिद के परिवर्तित रूप में भी उसकी संरचना चतुष्कोण जैन मंदिरों तथा उनकी अंलकृत छतों (चित्र १४६) से मिलतीजूलती है। स्तंभों का रूपांकन सबल है और उसमें सुस्पष्ट अलंकरण-योजना है (चित्र १४७) । 1 (जैन) कैलाशचंद. एंशियेण्ट सिटीज एण्ड टाउन्स ऑफ़ राजस्थान. 1970. दिल्ली. पृ 426. 251 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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