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अध्याय 20 ]
उत्तर भारत
मंदिरों (संभवतः प्राकारयुक्त मंदिरों) का स्थल रहा होगा।" इस टीले से एक जैन चौमुख, बालक को लिये हुए महिला (अंबिका ? ) की मूर्ति, तीर्थंकर मूर्तियों के शीर्ष तथा छत्र भी उपलब्ध हुए थे। क्या इससे यह आभास नहीं मिलता कि प्राकार-युक्त यह ऊँचा टीला मध्ययुगीन जैन मंदिर रहा
? मध्ययुग में उत्तर-भारत के ब्राह्मण्य या बौद्ध मंदिरों के चारों ओर ऊंचे प्राकार नहीं हुमा करते थे।
ईंट सदा ही गंगा-यमुना घाटी की मुख्य निर्माण सामग्री रही है, क्योंकि उसे बनाना सरल है। पत्थर केवल उसके निकटवर्ती क्षेत्रों, यथा, हिमालय की पहाड़ियों, दिल्ली और मथुरा के निकट अरावली पर्वत के विस्तार, दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्व में वाराणसी तक विंध्य पर्वत-श्रेणियों में ही पाया जाता था। गाहड़वाल-युग के अधिकांश मंदिर, चाहे वे ब्राह्मणों के हों, अथवा जैनों के, ईंटों से ही बनाये गये होंगे और इस प्रकार के मंदिरों का विकास-क्रम पत्थरों से निर्मित मंदिरों की संरचना से भिन्न रहा होगा। उनके कुछ प्रकारों, जिनकी रचना कोणीय (चतुष्कोणीय, अष्टकोणीय, दशकोणीय तथा षोडशकोणीय) या वर्तुलाकार हुआ करती थी, का ज्ञान सारनाथ स्थित धर्मचक्रजिन-विहार के अतिरिक्त, इस युग से पूर्व फतेहपुर, कानपुर और सुल्तानपुर जिलों में निर्मित ईंटों के मंदिरों से प्राप्त किया जा सकता है। नये मंदिरों के निर्माण में पूर्व-निर्मित ध्वस्त भवनों की सामग्री का उपयोग मुक्त रूप से किया जाता था। इस तथ्य की पुष्टि श्रावस्ती-स्थित शोभनाथमंदिर के अवशेषों से भी होती है । भवन के अलंकरण के लिए ढली हुई तथा उत्कीर्ण इंटो का प्रयोग सामान्य रूप से किया जाता था ।
पाषाण-निर्मित मंदिरों के स्वरूप की कुछ जानकारी इलाहाबाद संग्रहालय (रेखाचित्र १३) में संगृहीत पाषाण-निर्मित एक लघु देवकुलिका से प्राप्त की जा सकती है। उसकी तिथि ग्यारहवीं शताब्दी मानी गयी है । देवकुलिका की रूपरेखा से ज्ञात होता है कि जहाँ तक शिखर का संबंध है उसके शैली-परिवार का संबंध खजुराहो के आदिनाथ और वामन-मंदिरों से है।
इलाहाबाद संग्रहालय में एक और देवकुलिका की अलंकृत प्रतिकृति है ( रेखाचित्र १४), जिसकी तिथि दसवीं शताब्दी मानी गयी है। एक ओर तो यह प्रतिकृति प्रतीहार-शैली के मूल-प्रासाद से निकट रूप से संबंधित जान पड़ती है, वहीं दूसरी ओर वह आगामी युग के शिखर-युक्त गर्भगृह के लिए एक भावी आदर्श रहा है। इसका प्रमाण हमें अल्मोड़ा जिले के द्वारहाट नामक स्थान के मण्यामंदिर-समूह में लगभग चौदहवीं शती की जैन देवकुलिकाओं के रूप में मिलता है। गाहड़वालों की मंदिर-निर्माण-शैली पर संभवतः, अल्प सीमा तक ही सही, राजस्थान, मध्यभारत और यहाँ तक कि बिहार की कला-परंपराओं का प्रभाव पड़ा था। किन्तु मूल-प्रासाद के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि प्रतीहार-शैली कुछ परिवर्तनों के साथ जारी रही; परन्तु उसमें कुछ ऐसी बोझिलता आ गयी कि अंत
1 जोशी (एम सी). भारती, बुलेटिन ऑफ द कॉलेज ऑफ इण्डोलॉजी, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी. 8, 1; पृ 66
तथा परवर्ती. 2 प्रमोदचंद्र. स्टोन स्कल्पचर इन दि इलाहाबाद म्यूजियम. 1971 (?). पूना. चित्र 174.
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