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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई० [ भाग 4 प्रतिमाओं की दृश्य-पंक्ति और कुछ अन्य जैन प्रतिमाएँ रेखांकित हैं। चंद्रगुप्त से पारंपरिक रूप से जुड़े हए ये तीनों विमान-मंदिर या त्रिकट श्रवणबेलगोला और उसके निकटवर्ती क्षेत्र के सर्वाधिक । प्राचीन विद्यमान वास्तु-स्मारक हैं, जो लगभग ८५० ई० के कहे जा सकते हैं । दो पार्श्व विमानों में प्रतिष्ठापित मूल प्रतिमाओं का मूल रूप अब ज्ञात नहीं है किन्तु आजकल इन मंदिरों का महत्त्व अपेक्षाकृत कम है और इनमें दो यक्षियों--पद्मावती और कुष्माण्डिनी--की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठापित हैं। मध्यवर्ती गर्भगृह में पार्श्वनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठापित है। यह विमान-मंदिर प्रतीत होता है, जिसका ऊपरी ढाँचा लुप्त हो गया है और जो आजकल मुख्य मंदिर के रूप में प्रयुक्त होता है। भित्ति के ऊपरी भाग में धरन के निकट हंसों की शिल्पाकृतियाँ अंकित हैं। ऊपर के वक्राकार कपोत पर तीन कंगूरों से युक्त कुडु-तोरण हैं जिनकी संख्या नीचे के भित्ति-स्तंभों के समान है। कपोत के ऊपर सरदल के ऊपरी भाग में व्याल-आकृतियाँ अंकित हैं। संपूर्ण-विमान-समूह में सरदलअंकन का यही रूप रहा है। इस अधिरचना के ऊपर प्रत्येक विमान के अंत में चोटी पर चौकोर ग्रीवा और शिखर एक छोटी स्तूपी के साथ हुआ करते हैं, जो अब नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि दो विमानों के शिखरयुक्त अंतराल के मध्य में भी इसी प्रकार के ग्रीवा-शिखर की अधिरचना थी, जो मूलतः एक पंक्ति में तीन विमानों के समूह का दक्षिणमुखी त्रिकूट बनाती थी। दूसरा तल बहुत छोटा और साधारण है और परवर्ती जीर्णोद्धार के समय बनी भारी जगती के कारण अनगढ़ लगता है। प्रथम तल की सरल संरचना के कारण इन अष्टांग अथवा अष्टवर्ग विमानों का दूसरा तल एक तल का षडंग अथवा षड्वर्ग-जैसा दिखाई देता है। यह सामान्य ऊँचाई के प्रारंभिक अष्टांग-विमान निर्मित करने की परिपाटी के अनुसार हुआ है। श्रवणबेलगोला के बाह्य अंचल में स्थित कम्बदहल्लि की पंचकूट-बस्ती का (चित्र १३० क) दक्षिणी-विमान-वास्तुकला में अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है क्योंकि यह स्थान दक्षिणी वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र और पागम ग्रंथों में वर्णित तत्त्वों और शैलियों का सचित्र उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्राकार के भीतर यह पाँच विमानों का समूह है तथा सामने गोपुर है । पूर्ववर्ती समय में यह तीन विमानों का त्रिकूटाचल था जिनके सामने एक संयुक्त चौकोर मण्डप और उत्तर की ओर से तीनों के लिए संयुक्त प्रवेश-द्वार था । परिधीय रेखा में केंद्रीय मुख्य विमान गोपुर सहित उत्तरमुखी है और पार्श्व के दोनों विमान क्रमशः पूर्व और पश्चिमोन्मुखी हैं तथा सभी वर्गाकार और द्वितल हैं। केंद्रीय अथवा उत्तरमुखी दक्षिणी विमान की वर्गाकार अधिरचना पर वर्गाकार ग्रीवा और शिखर दक्षिण की नागरविमान-शैली के अनुरूप हैं तथा पूर्वोन्मुखी पश्चिमी विमान की वर्गाकार संरचना पर अष्टभुजी ग्रीवाशिखर उसे द्राविड़ रूप प्रदान करते हैं; और पूर्व में, उसके सामने के भाग में, पश्चिमोन्मूखी गोलाकार ग्रीवा-शिखर है जो वेसर-शैली की प्रस्तुति है। इस प्रकार तीनों विमान निश्चित रूप से दक्षिणी वास्तुकला की नागर, द्राविड़ और वेसर-शैली की कृतियाँ हैं जिनका वर्गीकरण ग्रीवा और शिखर 1 शिल्पी का नाम बल्लिग्राम (बेलगाम) का दासोजा अनेक स्थानों पर उत्कीर्ण है । यह वही व्यक्ति है जिसे बेलूर के प्रसिद्ध होयसल-मंदिर की अनेक प्रतिमाओं के निर्माण का यश प्राप्त है. 218 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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