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________________ अध्याय 19 ] दक्षिण भारत पूर्व में गोपुर-प्रवेश का पता चला । इस समूह में दो पास-पास निर्मित केंद्रीय मंदिर और उनके पीछे दो लघु मंदिर थे। इस स्थल से उकड़ बैठे हुए सिंहों पर आधारित दो स्तंभ, दो सिंह-शीर्षों पर दण्डरहित स्तंभ और अन्य वास्तु-अवशेष उपलब्ध हुए हैं। अधिष्ठान पर चोल-नरेश राजराज-प्रथम (९८५-१०१४ ई०) के खण्डित अभिलेख से मंदिर का निर्माण-काल इस समय से पूर्व मुत्तरैयार शासनकाल में नौंवीं शताब्दी का उत्तरार्ध और दसवीं शताब्दी का पूर्वार्ध निश्चित होता है। एक अन्य शिलालेख में दसवीं शताब्दी के प्राचार्य मतिसागर का उल्लेख है। अन्य संदर्भो के अनुसार प्राचार्य मतिसागर दयापाल और वादिराज के धर्मगुरु थे। और अधिक महत्त्वपूर्ण हैं एक दर्जन से अधिक तीर्थंकरों की भव्य प्रतिमाएं जिनमें महावीर और पार्श्वनाथ की प्रतिमाएं सम्मिलित हैं, अन्य प्रतिमाएं अनुगामी देवों की हैं। मंदिर की मूलनायक तीर्थंकर-प्रतिमा, जिसे उत्खनन-स्थल से हटाकर अब ग्राम के निकट स्थापित कर दिया गया है, सिद्धासन-मुद्रा में त्रिछत्र के नीचे अवस्थित अत्यंत भव्य है। मूर्ति के शिलापट्ट पर एक अभिलेख है जिसमें लिखा है कि तिरुवेण्णायिल के ऐंयुकँव पेरुमपल्लै (जिसका पुराना नाम चेट्टीपट्टी है) के पाँच सौ व्यापारियों के मण्डल ने मंदिर के गोपुर का निर्माण जयवीर पेरिलमैयान के द्वारा करवाया था। दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी की लिपि में इस शिलालेख की तिथि इस मंदिर-समूह को किंचित् पूर्ववर्ती काल का ठहराती है। सेम्बत्तूर (चित्र १२६ क), मंगदेवनपट्टि, वेल्लनूर और कण्णंगरक्कुडि, सभी पूर्वोक्त जिले में और कोविलंगुलम और पल्लिमदम, रामनाथपुरम जिले में जैन निर्मित मंदिरों के पुरावशेष मिलते हैं। जिन स्थानों का उल्लेख पहले किया गया है उनमें तीर्थंकरों और अन्य जैन प्रतिमाओं के अतिरिक्त सिंहाधार-स्तंभ भी मिलते हैं जो मुत्तरैयार शासकों द्वारा राजसिंह और उसके परवर्ती पल्लवराजाओं के समय की अनुकृतियाँ हैं । दक्षिण कर्नाटक के निमित मंदिर दक्षिण के संपूर्ण-प्रस्तर-निर्मित प्राचीन मंदिरों में सर्वाधिक प्राचीन विद्यमान जैन मंदिरों के रूप में तीन साधारण विमान-मंदिरों का समूह है जिसे चंद्रगुप्त-बस्ती (चित्र १२६ ख) कहा जाता है । यह मंदिर-समूह श्रवणबेलगोला (हासन) की चंद्रगिरि पहाडी अथवा चिक्कबेट्टा पर है। प्रत्येक विमान नीचे से दो मीटर लंबा-चौड़ा है तथा एक संयुक्त आयताकार अधिष्ठान के छोरों पर स्थित है। इन दोनों विमानों के मध्य में तीसरा मंदिर समतल वितान का है। दोनों विमानों की बाह्य पार्श्वभित्तियों और चबूतरे को आगे बढ़ाकर प्रत्येक के सामने एक अर्ध-मण्डप की रचना की गयी है जिससे संपूर्ण परिसर एक विशाल चौक-जैसा दिखाई देता है। यह विमान-समूह अब बहुत काल पश्चात् निर्मित विशाल कट्टले-बस्ती के मण्डप का उत्तरी पार्श्व अंग बन गया है। चंद्रगुप्त-बस्ती मण्डप का अग्रभाग बारहवीं शताब्दी में भव्य शिल्पांकन और सेलखड़ी की सूक्ष्मांकित जाली से ढंक दिया गया। मध्य में प्रवेश-द्वार बनाया गया जो वर्णनात्मक मूर्तियों की चित्र-वल्लरियों द्वारा अलंकृत है। द्वार पर चंद्रगुप्त मौर्य और भद्रबाह के संबंधों की पारंपरिक गाथाओं का बोध करानेवाली 217 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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