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[ भाग 6
वास्तु- स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई०
जिनालय या वसदि के स्थापत्य का विवरण देते समय उसके विभिन्न भागों का परिज्ञान कर लेना उपयोगी होगा । विभिन्न भागों की संयोजना की दृष्टि से जैन मंदिर और किसी समकालीन ब्राह्मण्य मंदिर में अधिक अंतर नहीं होता । तथापि, यह उल्लेखनीय है कि कुछ अभिलेखों में जैन मंदिर की रचना के विषय में सूचना विद्यमान है । उदाहरण के लिए, निडुगल्लू में स्थायी रूप से निवास करते हुए शासन करनेवाले इरुंगोणदेव - चोल नामक सामंत के समय का १२७८ ई० की तिथि से अंकित एक अभिलेख अनंतपुर जिले के अमरपुरम से प्राप्त हुआ है जिसमें वृत्तांत है कि एक विशेष दान द्वारा जो भी प्राय हो उसका उपयोग ब्रह्म - जिनालय नामक मंदिर के 'उपान से स्तूपी तक' (उपनादि- स्तूपी- पर्यंतम् ) पाषाण से पुनर्निर्माण में किया जाये जिसमें महा-मण्डप, भद्र-मण्डप, लक्ष्मी-मण्डप, गोपुर, परिसूत्र, वंदनमाला, मान- स्तंभ और मकर- तोरण सम्मिलित हों । 2 उत्तरी कनारा जिले के बीलगि से प्राप्त, १५८१ ई० के एक कन्नड अभिलेख में लिखा है कि किसी सामंत ने रत्नत्रय वसदि का और मण्डप, मुनिवास, चंद्रशाला आदि का निर्माण कराया तथा एक राजवंश की महिला ने शांतीश्वर के लिए गंधकुटी बस्ती का निर्माण कराया ।
जैन स्थापत्य के उदाहरण चार वर्गों में रखे जा सकते हैं । प्रथम वर्ग में हम्पी के मंदिर आते हैं जिनमें शिखर - भाग सोपानबद्ध और सूच्याकार होता है । इसमें संदेह नहीं कि शिखर की यह विधा ब्राह्मण्य मंदिरों की रचना में भी स्वीकृत हुई पर बहुत से जैन मंदिरों की यह विशेषता उनकी अपनी है । दूसरा वर्ग उत्तर कनारा जिले के भटकल और दक्षिण कनारा जिले के मूडबिद्री ( मूडबिदुरे ) के कुछ विशाल पाषाण - निर्मित मंदिरों का है । इन मंदिरों की सबसे प्रमुख विशेषताएँ ये हैं कि इनकी छतें ढालदार किन्तु समतल होती हैं, और इनके पार्श्वभागों में एक विशेष प्रकार की पाषाण-निर्मित जाली की संयोजना होती है । इन मंदिरों में और नेपाल के अधिकांश भाग में विद्यमान काष्ठ- निर्मित भवनों में अत्यधिक समानता है । पर इस समानता का कारण इससे अधिक कुछ नहीं प्रतीत होता कि दोनों क्षेत्रों की समान परिस्थितियों ने समान रचनाओं को जन्म दिया। इस प्रकार की छतें भटकल की प्रत्येक घास की झोंपड़ी में, यहाँ तक कि द्वितल प्रवास - गृह में भी देखी जा सकती हैं । छत का इस पद्धति से पाषाण द्वारा निर्माण इस क्षेत्र में प्रचलित घास की छत का अनुकरण मात्र है, जिसकी आवश्यकता यहाँ की जलवायु ने अनिवार्य कर दी और यह संभव इसलिए हुआ क्योंकि इस क्षेत्र में जहाँ चाहें वहीं लैटराइट पाषाण की बड़ी-बड़ी चट्टानें काटकर निकाली जा सकती हैं ।' तीसरा
1 एनुअल रिपोर्ट ग्रॉफ साउथ इण्डियन एपिग्राफी, 1916-17, परिशिष्ट सी, क्रमांक 40.
2 वही, पृ 74, 113-14.
3 एनुअल रिपोर्ट प्रॉन कन्नड रिसर्च इन बॉम्बे प्राविस फॉर 1939-40; पृ 75, क्रमांक 88.
4 लांगहर्स्ट / हम्पी रुइंस. 1933. दिल्ली. पृ 94-95, रेखाचित्र 44.
5 कजिन्स (एच). द चालुक्यन प्राकिटेक्चर ग्रॉफ द कनारीज डिस्ट्रिक्ट्स, मॉर्क यॉलॉजिकल सर्वे प्रॉफ इण्डिया, न्यू इंपीरियल सीरिज, 42; 1926, कलकत्ता, पृ134-35 / पर्सी ब्राउन इण्डियन प्राकिटेक्चर, बुद्धिस्ट एण्ड हिन्दू, चतुर्थ संस्करण, 1959. बंबई. पृ 132.
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