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________________ अध्याय 29 ] दक्षिणापथ - उस धर्म के गौरव की रक्षा का एक उदाहरण प्रस्तुत कर दिया जो इस बात पर बल देता है कि उसके अनुयायी अहिंसा के मार्ग पर चलें, चाहे यातनाएं कितनी ही कठोर हों। विजयनगर शासक देवराय-प्रथम (१४०४-२२ ई.) की रानी भीमादेवी एक जैन महिला थी। उसने श्रवणबेलगोला की मंगायि-बस्ती में शांतिनाथ की एक मूर्ति की स्थापना की। उसने जैन प्राचार्यों को भी संरक्षण दिया। इसके बाद का शासक देवराय-द्वितीय (१४२२-४६ ई०) भी जैन धर्म को संरक्षण देता रहा। १४२४ ई० में उसने वरांग नेमिनाथ की वसदि को तलुव का वरांग नामक ग्राम दान किया। इसके अतिरिक्त १४२६ ई. में उसने राजधानी हम्पी में भी एक चैत्यालय का निर्माण कराया । कृष्णदेवराय (१५०९-२६ ई.) के शासन की यह विशेषता थी कि उस समय सभी धर्मों के अनुयायियों को उदारता और समान रूप से संरक्षण प्राप्त था । १५१६ ई० और १५१६ ई० में उसने जैन वसदियों को दान दिया और १५२८ ई० में बेल्लारी जिले के चिप्पगिरि में भी एक वसदि को दान दिया । सम्राट् के अतिरिक्त, उसके कुछ अधिकारियों ने भी जैन धर्म को महान् उत्कर्ष प्रदान किया। इस संदर्भ में एक धर्मनिष्ठ जैन सेनापति इरुगप्प (१३८४-१४४२ ई०) का उल्लेख किया जाना चाहिए जिसने हरिहर-द्वितीय और देवराय-द्वितीय के अधीन अपने सेवाकाल में इस साम्राज्य के विभिन्न भागों में मंदिरों का निर्माण कराकर, उन्हें उदार सहायता देकर और जैन गुरुयों को संरक्षण प्रदान करके इस धर्म की स्वेच्छापूर्वक सेवा की। जैन धर्म के अनुयायियों ने विभिन्न प्रादेशिक राजदरबारों में भी अपना स्थान बनाया क्योंकि धर्म का प्रचार साम्राज्य की राजधानी की अपेक्षा वहाँ अधिक सरलता से किया जा सकता था। इस प्रकार यह धर्म कोंगाल्वों, चंगाल्वों, संगीतपुर (हवल्लि) के शालल्वों तथा अन्य सामंतों के और गेरसोप्पा राजाओं और कार्कल के भैररस प्रोडेयरवंशियों के राजदरबारों में लोकप्रिय हो गया । आविलनाड के प्रभुओं और कप्पटूर, मोरसुनाड, बिदनूर, बागुनजिसीमे, नुग्गेहल्लि तथा अन्य स्थानों के महाप्रभुओं के छोटे-बड़े सामंतों की कृपा भी इस धर्म को प्राप्त हुई जिन्होंने पश्चिमी दक्षिणापथ के विभिन्न भागों पर पंद्रहवीं से सत्रहवीं शती तक शासन किया। इन्होंने जैन धर्म को जो संरक्षण प्रदान किया उसकी पुष्टि अनेकानेक अभिलेखों और स्मारकों से होती है। यद्यपि, जैसा कि कहा भी जा चुका है, तेलंगाना और दक्षिणी महाराष्ट्र में यह धर्म इस काल में इतना स्वल्प प्रचलित रहा कि उसकी कड़ी जुड़ी रही। 1 एपिग्राफिया कर्नाटिका, 2, प्रस्तावना, पृ 29. 2 सालेतोर, (बी ए) मिडोवल निकम, 1 301. 3 वही, पृ 302-03. 4 वही, पृ 301. 5 वही, पृ306 तथा परवर्ती. 6 वही, 313 तथा परवर्ती. / राइस (बी एल) मैसूर एण्ड कर्ग फ्रॉम इंस्क्रिप्शंस. 1909. लंदन. 4 203. 371 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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