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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 600 से 1000 ई०
[ भाग 4
सामान्य मण्डप-प्रकार के हैं। इनमें आयताकार मण्डप के साथ अग्रभाग में स्तंभ और छोटे-बड़े सपाट भित्ति-स्तंभ हैं जिनका अलंकरण उथले उरेखन के रूप में है। पिछली पोर पार्शभित्तियों में देवकोष्ठ उत्कीर्ण हैं। मण्डप को बहुधा अगले और पिछले भागों में स्तंभों की अंत:पंक्ति अथवा उनके अभाव में फर्श और छत के स्तर के द्वारा विभक्त किया गया है। पृष्ठ-भित्ति के देवकोष्ठ की संख्या एक से अधिक और कहीं-कहीं एक पंक्ति में तीन, पाँच, अथवा सात तक होती है। देवकोष्ठ का मुखभाग मण्डप की ओर प्रक्षिप्त होता है और उसका आकार-प्रकार प्रायः दक्षिणी विमान-शैली के अनुरूप होता है।
सर्वाधिक प्राचीन जैन गुफा-मंदिर तिरुनेलवेली जिले में मलैयडिक्कूरिच्चि स्थान पर है जिसे बाद में शिव मंदिर में परिणत कर दिया गया। यह गुफा-मंदिर सामान्य मण्डप-शैली का है जिसके अग्रभाग में दो स्तंभ और दो भित्ति-स्तंभ हैं जिनपर कला-पिण्ड तथा मानव, पशु, पक्षियों आदि के कलाप्रतीकों जैसे सामान्य अलंकरण हैं। मानव-आकृतियाँ स्पष्टतः जैन शैली की हैं। इनके अतिरिक्त अन्य मूर्तियाँ जैन प्राकृतियाँ होने का आभास देती हैं, जो गुफा के शैव मत के अनुरूप परिवर्तन के साथ पूर्णतया अथवा अंशतः परिवर्तित कर दी गयीं । इनमें से एक मूर्ति पर हाथी पर आरूढ़ चतुभूजी देवता, संभवतः इंद्र, अथवा ब्रह्म-शास्ता, अथवा कुबेर-यक्ष का अस्पष्ट रेखांकन है।
इस गुफा को शैव मंदिर के रूप में परिवर्तित करने का पता एक परवर्ती पाण्ड्य अभिलेख में शिव को समर्पित करने के उल्लेख से चलता है। यह रूपांतरण संभवत: शैव संत ज्ञानसंबंदर के प्रभाव से कन पाण्ड्य (अरि-केशरी-मारवर्मन, ६७०-७०० ई०) द्वारा जैन मत से शैव मत में परिवर्तन का परिणाम था। इस घटना का प्रभाव जैन निर्माण कार्यों के अचानक रुक जाने के रूप में पड़ा; अन्यथा तिरुनेलवेली जिले के पेच्चिप्पार के जैन गुफा-मंदिर का सौंदर्य अत्यंत निखरा हा होता जिसका उत्खनन भी सातवीं शताब्दी के अंतिम चरण में हुआ था।
मदुरै के उपनगर तिरुप्परनकुण्रम का विशाल गुफा-मंदिर संभवतः रूपांतरण का दूसरा उदाहरण है जिसके मूल जैन मंदिर को लगभग ७७३ ई० में शैव रूप दिया गया। तिरुप्परनकूण्रम की उसी पहाड़ी की एक अन्य शैलोत्कीर्ण गुफा को भी इसी प्रकार परिवर्तित किया गया। यह स्थान अब सुब्रह्मण्य की पूजा का केंद्र है।
प्रानैमल भी जैन केंद्र से ब्राह्मण्य केंद्र में रूपांतरण का एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत करता है। यहाँ का नरसिंह को समर्पित शैलोत्कीर्ण गुफा-मंदिर एक सुचितित वैष्णव उत्खनन का उदाहरण है, जिसे पाण्ड्यों के राज्यकाल में लगभग ७७० ई० में उत्कीर्ण किया गया। जैन केंद्रों के शैव या वैष्णव केंद्रों में परिवर्तन के अनेक उदाहरण हैं, जो पिल्लैयरपट्टि और कून्नक्कण्डि (रामनाथपुरम जिला), अरिट्टापट्टि (मदुरै जिला) नतमले और कुदुमियमलै (तिरुच्चिरापल्लि जिला), तिरुच्चिरापल्लि, वीरशिखामणि और कलुगुमलै (तिरुनेलवेली जिला), दलवनूर (दक्षिण अर्काट जिला) सीयमंगलम और मामंदूर (उत्तर अर्काट जिला) में देखे जा सकते हैं। केवल पुदुक्कोट्ट
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