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अध्याय 19
दक्षिण भारत
जैन धर्म की लोकप्रियता
सातवीं से दसवीं शताब्दियों का समयांतराल दक्षिण और दक्षिणापथ में छोटे-बड़े जैन संस्थानों के सक्रिय निर्माण का साक्षी है। इसी अवधि में शैव और वैष्णव संस्थानों और उनके मंदिरों का भी विकास हा। तमिलनाड में शैव और वैष्णव-नायनमार और पालवार--संतों के सांप्रदायिक विरोध के होते हए भी जैन संस्थानों के सक्रिय निर्माण की प्रक्रिया विकासोन्मुख ही रही। ध्वंसावशेषों, विद्यमान पुरावशेषों और सैकड़ों तमिल, तेलुगु तथा कन्नड़ अभिलेखों में जैन मंदिरों और संस्थानों को दिये गये दानों के उल्लेख से ज्ञात होता है कि जैन मतावलंबी सर्वत्र विद्यमान थे और लगभग प्रत्येक ग्राम में उनकी प्रचुर जनसंख्या थी। १००० ई० के पश्चात्, विशेषकर रामानुजाचार्य द्वारा होयसल-नरेश विष्णवर्धन के जैन धर्म से वैष्णव धर्म में मत-परिवर्तन करने से और लिंगायत शैव मत के उद्भव और विकास से कन्नड़ और निकटवर्ती तेलुगु क्षेत्रों में जैन धर्म की अवनति हई।
तमिलनाडु के शैलोत्कीर्ण मंदिर तमिलनाड के शैलोत्कीर्ण जैन गफा-मंदिर सातवीं शताब्दी से मिलते हैं। सामान्यतः ये उन पर्वतश्रेणियों में विद्यमान हैं जो पहले जैन संन्यासियों के द्वारा ईसा-पूर्व लगभग दूसरी शताब्दी' से अधिवासित थीं और जिनमें से कुछ ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करती हैं जिनसे इनका शैव और वैष्णव केंद्रों में परिवर्तित होना प्रमाणित होता है।
सुविधाजनक गुफाओं, ईंट और गारे से निर्मित मंदिर और गर्भगृहों से युक्त इन पर्वतीय अधिष्ठानों में से अनेक चैत्यवासों और श्राविकाश्रमों के महत्त्वपूर्ण केंद्र बन गये थे। ऐसे ही स्थलों पर पल्लवों और पाण्ड्यों ने बहुसंख्या में शैलोत्कीर्ण मंदिरों का निर्माण कराया जिनमें से अनेक मूलतः जैन थे किन्तु बाद में ब्राह्मण्य केंद्रों में परिवर्तित कर दिये गये।
इन क्षेत्रों में प्रस्तर (ग्रेनाइट, नाइस, चारनोकाइट) शिल्प-सुलभ न होने के कारण उत्खननप्रक्रिया की भिन्नता तथा श्रम और समय की दृष्टि से ये लयन या गुफा-मंदिर सरल रचना-शैली और
1 [द्रष्टव्य: अध्याय 9--संपादक.]
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