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________________ अध्याय 19] दक्षिण भारत के निकट शित्तन्नवासल (तिरुच्चिरापल्लि जिला) में ही इस प्रकार के परिवर्तनों से सुरक्षित जैन पुरावशेष विद्यमान हैं। यह एक प्रसिद्ध जैन केंद्र के रूप में ईसा-पूर्व दूसरी शताब्दी से नौवीं शताब्दी ईसवी तक निरंतर जैनों के प्रभुत्व में रहा है। शित्तन्नवासल के शैलोत्कीर्ण जैन गुफा-मंदिर को उसके शिलालेख में अण्णलवायिल का अरिवर-कोविल (अन्नवाशल स्थित अर्हत् का मंदिर) कहा गया है, जो अपने अस्तित्व में सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध अथवा आठवीं शताब्दी के पूर्वाद्ध में आया होगा, जैसा कि शैलोत्कीर्ण मण्डप की उत्तरी ओर के लघु अभिलेख की पुरालिपि से ज्ञात होता है। यह विशिष्ट मण्डप-शैली का गुफामंदिर है जिसमें पायताकार शैलोत्कीर्ण मण्डप और उसके अग्रभाग में दो स्तंभ और दो भित्ति-स्तंभ (रेखाचित्र ११, चित्र १२७ क) हैं। उसके भीतर चौकोर गर्भगृह है, जिसके फर्श का स्तर ऊँचा है। वहाँ तक पहुँचने के लिए तीन सीढ़ियों का मार्ग तथा सामान्य-सा द्वार है। गर्भगृह का मुखभाग यथारीति किंचित् मण्डप की ओर प्रक्षिप्त है। मण्डप की दो अंतःभित्तियों में देवकोष्ठ उत्कीर्ण हैं। दक्षिणी देवकोष्ठ में पार्श्वनाथ की प्रतिमा. त्रिछत्र और नागफण के साथ, पदमासन-मुद्रा में अंकित है। निकटवर्ती स्तंभ पर तमिल नामाभिलेख में उलोकादित्तन् (लोकादित्य) के रूप में इस पार्श्वनाथ-प्रतिमा का उल्लेख है । उत्तरी देवकोष्ठ में ध्यान-मुद्रा में छत्रयुक्त मूर्ति अंकित है तथा निकटवर्ती स्तंभ पर तमिल नामाभिलेख में तिरुवाशिरियन (श्री प्राचार्य) लिखा है। इसे प्राचार्य की मूर्ति समझा जाता है। दोनों ही शिलालेख नौवीं शताब्दी की लिपि में हैं। मण्डप और गर्भगृह की भित्तियाँ और छत चिकनी हैं, गर्भगृह की छत पर छत्र की उभरी किनारियों का अलंकरण है । पृष्ठभित्ति पर एक पंक्ति में ध्यानस्थ मुद्रा में तीन मूर्तियाँ उरेखित हैं। इनमें से दो के सिर के ऊपर त्रिछत्र हैं, जिससे प्रतीत होता है कि वे तीर्थंकर-मूर्तियाँ है। तीसरी मूर्ति के ऊपर केवल एक छत्र है, जिससे मूर्ति की पहचान प्राचार्य अथवा चक्रवर्ती के रूप में की गयी है । मण्डप के अग्रभाग के दक्षिणी शिलाखण्ड के मुख पर तमिल भाषा का एक अभिलेख है, जो पाण्ड्य नरेश अवनिप-शेखर श्रीबल्लभ (श्रीमार श्रीबल्लभ, ८१५-८६२ ई०) के समय का है। इसके अनुसार जैनाचार्य इलन गौतमन ने, जिन्हें मदुरै आशिरियन भी कहा जाता था, अर्ध-मण्डप के जीर्णोद्धार तथा पुनर्निमाण की व्यवस्था की और चित्रों तथा मूर्तियों से पुनः अलंकृत कराया और सामने के भाग में मुख-मण्डप का निर्माण कराया, जिसका मूलरूप में निर्मित अधिष्ठान अाज भी विद्यमान है। इस अभिलेख में मान-स्तंभ के निर्माण का उल्लेख है जिसका पदम 1 ई० पू० दूसरी शती से तीसरी शती ई० तक के सभी प्राचीन जैन केंद्रों के लिए अध्याय 9 द्रष्टव्य. 2 एनुअल रिपोर्ट प्रॉन इण्डियन एपीग्राफी, 1960-61; स. 324. 3 एनुअल रिपोर्ट प्रॉन साउथ इण्डियन एपीग्राफी, 1904; 368. 4 प्रस्तर-मण्डप की वर्तमान रचना, जिसमें चार प्रस्तर-स्तंभ और शिलापट्टों से आच्छादित वितान है, मूल मण्डप के अवशेषों पर इस अध्याय के लेखक द्वारा सुरक्षा की दृष्टि से उस समय करायी गयी थी, जब वह पुदुक्कोट्टै में 1946 से पहले राज्य का पुरातत्त्वाधिकारी था। इसमें प्रयुक्त स्तंभ कुडुमियमले शिव (शिखानाथ स्वामी) मंदिर के शत-स्तंभीय भग्न मण्डप से लिये गये हैं । इसका अधिष्ठान मूल रूप में ही विद्यमान है। 213 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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