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________________ अध्याय 26 पूर्व भारत जैनों के प्रश्रय में पल्लवित कला में पूर्व भारतीय कला के उपादानों की स्थिति के विषय में हम इक्कीसवें अध्याय में विवेचन कर चुके हैं । इन उपादानों की संभवतः जो अंतिम झलक थी उसे भी लुप्त होने में अधिक समय नहीं लगा । विजातीय इस्लामी प्रभाव के प्रतिरोध ने हिन्दुत्व को एक ऐसा नया रूप ग्रहण करने की दिशा में प्रवृत्त किया जो अन्य संप्रदायों के प्रति व्यापक सहिष्णु दृष्टिकोण लेकर चले । पूर्व भारत का जैन समाज, जो इस क्षेत्र में अत्यल्प संख्या में था, हिन्दुत्व के इस नये प्रभाव में आने से नहीं बच सका । इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दुत्व के इस प्रभाव ने जैनों को अपने में समाहित कर लिया तथा उनके अभीष्ट उपादानों को अपने नवीन उपयोगों के लिए रूपांतरित कर डाला। इस रूपांतरण के लिए जैनों के अनेक देवी-देवताओं ने भी स्वयं को सहज रूप से प्रस्तुत कर दिया। इन रूपांतरणों के अनेक रोचक साक्ष्य हमें उपलब्ध है; उदाहरण के लिए, पार्श्वनाथ का बलराम या मनसा के रूप में रूपांतरण हुआ (जिसमें उनके स्पष्टतः परिलक्षित यौनांगों को सावधानीपूर्वक छिपा दिया गया ); ऋषभनाथ का शिव के रूप में तथा अंबिका का दुर्गा के रूप में रूपांतरण हुआ, आदि-आदि। इस प्रकार पूर्व भारत के जनसमाज के धर्म के रूप में जैन धर्म व्यावहारिक रूप से लुप्त हो गया, ऐसा माना जा सकता है । तत्कालीन परिस्थिति में यद्यपि जैन धर्मानुयायी हिन्दू समाज में समन्वित हो गये तथापि इससे यह तात्पर्य नहीं लिया जाना चाहिए कि उस काल में पूर्व भारत में जैन धर्म का अस्तित्व ही नहीं रहा । जैन धर्म अपने अस्तित्व में तो रहा लेकिन एक ऐसे तत्त्व के रूप में जो अनाहूत एवं अनपेक्षित हो और स्वयं को स्वतः ही परिवर्तित करने के लिए तत्पर हो । यह सुविदित है कि पश्चिम भारत के विभिन्न व्यापारी और महाजन मुगल काल में पूर्व भारत के मुगल शासन केंद्रों और उनके निकटवर्ती विभिन्न क्षेत्रों में बस गये धर्मानुयायी थे और वे अपने धर्म के प्रति अत्यंत निष्ठावान और दृढ़ जहाँ-जहाँ बसे वहाँ वहाँ उन्होंने अपने कार्य-कलापों का आरंभ किया । उनके प्रश्रय में पल्लवित कलाओं द्वारा पूर्व भारत में जैन धर्म और संस्कृति एक बार पुनः जीवित थे । इनमें अधिकांशतः जैन विश्वासी थे । ये लोग इन कार्य-कलापों तथा हो उठी । Jain Education International 351 For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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