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________________ अध्याय 26 ] पूर्व भारत बंगाल में मुगल शासन का सर्वप्रथम केंद्र ढाका ( बांग्ला देश) रहा है जिसे प्राचीनकाल में जहाँगीर नगर के नाम से जाना जाता था । पूरनचंद नाहर ने इस क्षेत्र से प्राप्त दो अभिलेखों की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए बताया है कि इन अभिलेखों में जैन मंदिरों के निर्माण और उनकी प्रतिष्ठा कराये जाने के उल्लेख हैं । इन मंदिरों का निर्माण स्पष्टतः पश्चिम भारत से श्राकर यहाँ पर बसनेवाले जैन धर्मानुयायियों ने कराया था; परंतु इन मंदिरों का कोई भी अवशेष ग्राज उपलब्ध नहीं है । पश्चिम भारत के कुछ समृद्ध जैन परिवार मुर्शिदाबाद ( पश्चिम बंगाल) और उसके निकटवर्ती क्षेत्र में भी आकर बसे । मुर्शिदाबाद उत्तरवर्ती काल में शासन का केंद्र बना जिसने अठारहवीं शताब्दी की संक्रांतिकालीन राजनैतिक परिस्थितियों में प्रभावशाली भूमिका निभायी है । अठारहवीं शताब्दी में विभिन्न यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों, विशेषकर ईस्ट इण्डिया कंपनी, द्वारा अपने व्यापारिक केंद्र स्थापित किये जाने से पटना तथा पूर्व भारत के अनेक नगरों ने महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया । इन व्यापारिक केंद्रों तथा इनके निकटवर्ती क्षेत्रों में जैन धर्मानुयायी व्यापारी पश्चिम भारत से आकर एक बड़ी संख्या में बस गये । इन परिस्थितियों में जैनों के प्रश्रय में कलात्मक कार्य-कलापों का तीव्र गति से क्रियान्वयन हुआ। ये कला-संबंधी कार्य-कलाप यद्यपि पूर्व भारतीय क्षेत्र में हुए किन्तु एक क्षेत्रीय प्रयास के अर्थ में वे पूर्व भारत से कहाँ तक संबंधित रहे हैं यह कहना कठिन है । पश्चिम भारत का जैन समाज प्रायः श्वेतांबर मतावलंबी रहा है। श्वेतांबर जैनों में श्वेत संगमरमर की प्रतिमाओं को वरीयता दी जाती । श्वेत संगमरमर की प्रतिमाओं में उन्नीसवें, बीसवें, बाईसवें और तेईसवें तीर्थंकर अपवाद 1 अतः इन जैनों ने इस क्षेत्र में जहाँ-जहाँ मंदिरों का निर्माण कराया, वहाँ-वहाँ श्वेत संगमरमर की प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित की किन्तु पूर्व भारत में श्वेत संगमरमर के उपलब्ध न होने के कारण ये प्रतिमाएँ मुख्यतः राजस्थान से मँगवायी जाती थीं और आज भी मँगवायी जाती हैं। राजस्थान में संगमरमर की खानें होने के कारण राजस्थान संगमरमर में संगतराशी और प्रतिमा निर्माण कला का लब्धप्रतिष्ठ केंद्र रहा है । राजस्थान से प्रतिमानों के मँगवाये जाने के कारण तत्कालीन पूर्व भारत की जैन मूर्ति मुख्यतः राजस्थानी शैली की रही है । पूर्व भारत में जैनों ने निस्संदेह जैन मंदिरों का निर्माण कराया है किन्तु उससे किसी उद्देश्यपूर्ण स्थापत्य शैली का विकास नहीं हो सका है । यदि जनप्रश्रय में पल्लवित स्थापत्य शैली के उदाहरण के रूप में मुर्शिदाबाद के निकटवर्ती जियागंज और अजीमगंज के जैन मंदिरों को रखा जाये तो यह उचित नहीं होगा, क्योंकि इन मंदिरों में मात्र संगमरमर की संगतराशी और नालीदार अलंकरण पर ही विशेष बल दिया गया है । इसके मूल में भी राजस्थानी परंपरा विद्यमान रही है । इन मंदिरों में आयातित रंगीन टाइलों तथा काँच और चीनी की पच्चीकारी का उपयोग किया गया है । जहाँ तक कलकत्ते के बहुचर्चित बद्रीदास मंदिर का प्रश्न है, वह पहले तो काल-क्रम की दृष्टि से विवेच्य काल के अंतर्गत आता नहीं; दूसरे, यह मात्र अलंकारिक 1 नाहर ( पूरनचंद ) जेन - लेख - संग्रह, भाग 1917. कलकत्ता. 352 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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