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________________ अध्याय 25 ] उत्तर भारत सतेज और प्राणवान हैं परंतु भाव-विहीन हैं, उनमें एक रूढिबद्धता और कठोरता दिखाई देती है जो इनकी विशेषताएँ बन गयी हैं । पशु-पक्षियों में हाथी का अंकन विशेष आकर्षक है। उत्तरवर्ती मंदिरों का मूर्ति-शिल्पीय स्तर न्यून श्रेणी का रहा है जो बड़ी प्रतिमानों में तो और भी अनगढ़ दिखाई देता है। कुछ मंदिरों में अलंकरण पर प्रतिबंध भी पाया गया है। उत्तरवर्ती मंदिरों की अलंकरण-योजना में मगल-परंपरा का एक विशेष प्रभाव देखा जाता है। कुछ उत्तरकालीन मंदिरों में चित्र और भित्ति-चित्र भी पाये गये हैं जिनमें स्पष्टतः मुगल-प्रभाव परिलक्षित है। इन चित्रों में अलंकृतियाँ तथा देवी-देवता संबंधी विषय चित्रित किये गये हैं जो स्थानीय कला-शैलियों से प्रभावित हैं। ये चित्र कलात्मक होते हुए भी विशेष प्रभावशाली नहीं हैं। मूर्ति-शिल्पों की रचना-सामग्री मुख्यतः बलुमा पत्थर, संगमरमर, बहुमूल्य रत्न एवं मणियाँ तथा धातुएँ रही हैं। इनकी अंकित विषय-वस्तु में सत्रहवीं शताब्दी पूर्व की परंपरागत विषय-वस्तु और कला-प्रतीकों की प्रमुखता रही है। उत्तरवर्ती प्रतिमाओं में अधिकतर संख्या तीर्थंकरों की है। इसके अतिरिक्त कुछ प्रतिमाएँ अंबिका, पद्मावती तथा बाहुबली आदि की भी हैं। मंदिर-स्थापत्य अजमेर और दिल्ली पर मुसलमानों के आधिपत्य से जैनों द्वारा संचालित मंदिर-निर्माण के कार्य-कलाप पूर्णतया तो बंद नहीं हुए किन्तु इन्हें एक भारी प्राधात अवश्य पहुँचा। इस परिस्थिति में भी राजस्थान के कुछ भागों में तेरहवीं शताब्दी के मध्य अनेक आकर्षक मंदिरों का निर्माण हुआ । सन् १२०१ में मारवाड़ स्थित खेडा में शांतिनाथ के मंदिर की प्रतिष्ठापना हुई। इसी शताब्दी में पेठड़शाह द्वारा नागौर में एक जैन मंदिर का निर्माण कराया गया। बीकानेर में शिवराज के पुत्र हेमराज ने मुसलमानों के आक्रमण से ध्वस्त मोरखन स्थित सुसानी जैन मंदिर का पुननिर्माण कराया। अजमेर में सच्चिकादेवी तथा अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाओं की सन् १२८० में प्रतिष्ठा की गयी। इसके उत्तरवर्ती काल में तो जैनों के धार्मिक भवनों तथा मंदिरों का एक बहुत बड़ी संख्या में निर्माण हुआ। सन् १२०० के उपरांत उत्तर भारत में जैन संप्रदाय द्वारा असंख्य मंदिरों का निर्माण कराया गया जिन सबकी चर्चा करना यहाँ संभव नहीं, परंतु कुछ उल्लेखनीय मंदिरों की चर्चा यहाँ प्रस्तुत है। पंद्रहवीं शताब्दी तक राजस्थान के अनेक नगर जैन-तीर्थों के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे जिनमें से कुछ का उल्लेख विक्रम संवत् १५५५ के रचे स्वर्णाक्षरी-कल्प-सूत्र-प्रशस्ति के ३५वें छंद में मिलता है जो इस प्रकार है : 1 नाहटा (अगरचंद). माण्डवगढ़ के संघ-नायक जसधीर की पत्नी कुमारी लिखापित स्वर्णाक्षरी कल्पसूत्र. जर्नल प्रॉफ व मध्यप्रदेश इतिहास परिषद् . 1962, भोपाल. पृ 89. 343 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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