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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई०
[भाग 6 सच्चैत्योभट-चित्रकूट-नगरे नानोल्लसन्नागरे, तीर्थे श्री-करहाट-नागह्रदके विश्व-प्रसिद्धाह्वये । श्रीमद्देव-कुलाढ्य-पाटकपुरे श्री-कुम्भमेरौ गिरौ,
तीर्थे रागपुरे वसंतनगरे चैत्यं नमस्कुर्वता । गुहिल शासकों की राजधानी चितौड़गढ़ या चित्रकूट मध्यकालीन जैन स्थापत्य का एक सर्वाधिक उल्लेखनीय केंद्र रहा है। यहाँ के जैन स्मारकों में सर्वाधिक उल्लेखनीय कीर्ति-स्तंभ (संभवतः मान-स्तंभ) है जो स्थापत्यीय संरचना निर्मित एक बहुतलीय गगनचुंबी स्तंभ है। इसके काल-निर्धारण के विषय में अनेक विद्वानों का मत है कि यह सन् १२०० से पूर्वकालीन है। लेकिन कुछ विद्वान्, जिनमें एम. ए. ढाकी' प्रमुख हैं, इसे पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि राणा कुंभा के काल में इसका मात्र पुनरुद्धार और पुनर्निर्माण हुआ है। कीर्ति-स्तंभ के समीप स्थित जैन मंदिर (चित्र २१६) पर्सी, ब्राउन के अनुसार, चौदहवीं शताब्दी का है और यह उसी स्थान पर बना हुआ है जहाँ पर पहले इसका मूल मंदिर स्थित था। इसके शिखर और गुंबद-युक्त मण्डप का बाद में पुनरुद्धार किया गया। परंतु इसका गर्भगृह, अंतराल और उससे संयुक्त मण्डप वाला निचला भाग पुराना ही है । इसकी चौकीदार पीठ पर स्थित बाह्य संरचना में शिल्पांकित प्राकृतियाँ तथा अन्य अलंकृतियाँ उत्कीर्ण हैं जो कलात्मक दृष्टि से अत्यंत संपन्न हैं। इस मंदिर का रथ-भाग, छाद्य तथा अन्य बाह्य संरचनाएं इसे अतिरिक्त सौंदर्य प्रदान करती हैं।
तीर्थकर शांतिनाथ को समर्पित श्रृंगार-चौरी (चित्र २२०) स्थापत्यीय दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । सन् १४४८ का निर्मित यह मंदिर पंचरथ प्रकार का है जिसमें एक गर्भगह तथा उत्तर और पश्चिम दिशा से संलग्न चतुष्कियाँ है । गर्भगृह भीतर से अष्टकोणीय है जिसपर एक सादा गुंबद है। मंदिर की बाह्य संरचना अनेकानेक प्रकार की विशेषताओं से युक्त मूर्ति-शिल्पों से अलंकृत है और जंघा-भाग पर उद्धृत रूप से उत्कीर्ण दिक्पालों, अप्सराओं, शार्दूलों आदि की प्रतिमाएं हैं। मानवों (या देवी-देवताओं) की आकर्षक प्राकृतियों (चित्र २२१ क) के शिल्पांकन भी यहाँ पर उपलब्ध हैं। मख्य प्रवेश-द्वार की चौखट के ललाट-बिंब में तीर्थंकर के अतिरिक्त गंगा, और यमना. विद्यादेवियाँ तथा द्वारपालों की प्रतिमाएँ अंकित हैं। गर्भगृह के मध्य में मुख्य तीर्थंकर-प्रतिमा के लिए एक उत्तम आकार का पीठ है, तथा कोनों पर चार स्तंभ हैं जो वृत्ताकार छत को आधार . प्रदान किये हुए हैं। छत लहरदार अलंकरण-युक्त अभिकल्पनाओं से सुसज्जित है जिसमें पद्मशिला का भी अंकन है । इसके चारों ओर गजतालु अंतरावकाशों से युक्त अलंकरण हैं । इस मंदिर के मूर्तिशिल्प का एक उल्लेखनीय पक्ष यह है कि मंदिर के बाह्य भाग के भीतर अष्टभुजी विष्णु और शिवलिंग जैसी हिन्दू देवताओं की उद्भुत प्रतिमाएँ भी हैं । चारित्रिक विशेषताओं की दृष्टि से ये शिल्पांकित प्राकृतियाँ विशुद्ध रूप से परंपरागत हैं।
1 ढाकी (एम ए). रिनेसाँस एण्ड द लेट मारु-गुर्जर टेम्पल मार्कीटेक्चर, जर्नल प्रॉफ द सोसाइटी प्रॉफ प्रोरिएण्टल
आर्ट. स्पेशल नंबर, 1965-66. कलकत्ता, पृ8. 2 ब्राउन (पर्सी). इण्डियन प्रार्कीटेक्चर (बुद्धिस्ट एण्ड हिन्दू). 1957. बम्बई, पृ 123.
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