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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई० [भाग 6 आकार के देवालय हैं जिनमें जैन-बिम्बं प्रतिष्ठित हैं; मंदिर के सम्मुख भाग में धनुषाकार प्रवेश-द्वार हैं। कुछ मंदिरों में दोहरे प्रांगण या मण्डप भी हैं। अनेक मंदिरों में गर्भगृह में चारों ओर प्रदक्षिणापथ हैं तथा इनके शिखर शैलीगत प्रकार के हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन मंदिरों की विन्यासरूपरेखा का उद्भव मध्यकालीन मस्जिदों अथवा मुगलों की हिन्दू रानियों के महलों के स्थापत्य से हया है। इन महलों में फतहपुर सीकरी स्थित महारानी जोधाबाई के महल का उल्लेख किया जा सकता है । इन महलों की विन्यास-रूपरेखा को देव-प्रतिमाओं तथा उपासकों के लिए संभवतः प्रा सरक्षात्मक पाया गया, इसलिए इनकी विन्यास-रूपरेखा को उत्तरवर्ती काल में मंदिरों के लिए ग्रहण कर लिया गया। इस प्रकार के कुछ मंदिरों में अत्यंत सुंदर रंगीन चित्र भी अंकित हैं जिन्हें अलंकरण की दृष्टि एवं देवी-देवताओं संबंधी विविध विषयों के अनसार चित्रित किया गया है। तीर्थंकर-पदों (चरण-चिह्नों) पर छोटी-छोटी गुंबदाकार स्तूपिकाओं तथा स्थापत्यीय निर्मितियों के निर्माण की परंपरा भी उत्तरवर्ती मुगलकाल में अत्यंत लोकप्रिय हई, जिन्हें टोंक नाम से जाना जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इनकी संरचनाएँ मुगलों के छोटे-छोटे मकबरों के स्थापत्य से ग्रहण की गयी हैं। मूर्तिकला मध्ययुगीन मंदिरों, विशेषकर राजस्थान के मंदिरों, की कला का मूल्यांकन करते हए ग्येत्ज का कथन है कि इन मंदिरों के स्थापत्य में विभिन्न भागों की व्यावहारिक भूमिकाओं को भली-भाँ समझने का प्रभाव रहा है। मूर्तिकला यद्यपि प्राणवान है तथापि इसका मानव शरीर-विन्यास से कोई संबंध रहा प्रतीत नहीं होता । राणा कुंभा के प्रमुख वास्तु-शिल्पी मण्डन के समृद्ध अनुभव एवं उसके द्वारा विकसित सीधे-सादे सरल रूपाकारों की भव्यता को उत्तरवर्ती मूर्तिकारों द्वारा भली-भाँति न समझे जाने के कारण मूर्तिकला भ्रांतिपूर्ण मान्यताओं के बीच दोलायमान रही है।' विवेच्य काल के जैन मंदिरों का अलंकारिक पक्ष बहमखी रहा है जिसमें एक से अधिक कला-शैलियाँ समन्वित हैं। इस अलंकारिक आलेखन में यद्यपि इसके मूर्ति-शिल्पों में कुछ कमियाँ हैं तथापि उसने इच्छित प्रभाव उत्पन्न किया है। नर-नारी की प्राकृतियों के अंग-विन्यास में घमावों और अंगों की गोलाई के अंकन की अतिशयता है; मुद्राओं में अति-भंग भंगिमाओं अथवा सौंदर्यपरक विषय-वस्तुओं का अंकन है, तथापि ये प्राकृतियाँ पूर्वकालीन प्राकृतियों की निकृष्ट अनकृतियाँ ही प्रतीत होती हैं । यद्यपि प्राकृतियाँ सामान्य रूप से सूक्ष्मतापरक और आकर्षक हैं तथापि वे यंत्रीकृत-सी दीख पड़ती हैं। इन मूर्ति-शिल्पों में दक्ष कलात्मकता तो है परंतु वह अल्प मात्रा में है और उसमें भी मौलिकता का नितांत प्रभाव है। ये मूर्ति-शिल्प गति, लय या प्रवाह से हीन हैं। यद्यपि प्राकृतियाँ 1. ग्येत्ज (हरमन). इण्डिया. आर्ट ऑफ द वर्ल्ड सीरिज. 1960. बम्बई. पृ 161. 342 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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