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________________ अध्याय 25] उत्तर भारत मंदिरों में मध्य भारतीय स्थापत्यीय परंपरा का। चित्तौड़गढ़, नागदा, जैसलमेर तथा राजस्थान के कुछ अन्य जैन मंदिरों को इस समूह के मंदिरों के उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। इन मंदिरों में गर्भगृह तथा अंतराल के अतिरिक्त एक या एक से अधिक मण्डप हैं जिनकी छतें कई सतहोंवाली हैं और अंलकृत हैं। उत्तरवर्ती कुछ मंदिरों में गुंबद भी पाये गये हैं। मंदिरों की बाह्य संरचना चौकीदार पीठ पर आधारित है। अनेक मंदिर मूर्ति-शिल्पों से अत्यंत संपन्नता के साथ अंलकृत हैं । जंघाभाग प्रक्षिप्त छाद्यों से आच्छादित हैं। अधिकांश मंदिरों के छाद्य प्राकृतिपरक मूर्ति-शिल्पों से सुसज्जित हैं। मंदिरों के शिखर अंग-शिखरों से युक्त होने के कारण भव्य हैं। कुछ मंदिर-शिखरों में . भूमिज-शैली का अनुकरण किया गया है। यद्यपि, ऐसे शिखर अत्यल्प ही हैं । इन मंदिरों के स्तंभ या तो साधारण हैं या अति अलंकृत, वृत्ताकार, कई स्तर वाले या फिर संयुक्त प्रकार के हैं। अनेक मंदिरों में छतें अत्यंत दक्षतापूर्ण उद्धृत मूर्ति-शिल्पों की सादा अथवा जटिल अभिकल्पनाओं से अलंकृत हैं। इस परंपरा के उत्तरवर्ती मंदिरों में मस्लिम-शैली का प्रभाव देखा जा सकता है। रणकपुर स्थित आदिनाथ का भव्य चतुर्मुख दिर इस काल के मंदिर-वास्तु का सर्वाधिक उल्लेखनीय उदाहरण है। (विस्तार के लिए द्रष्टव्यः अध्याय २८-संपादक) समूह २ : इस समूह के मंदिरों के उदाहरण मात्र अल्मोड़ा जिले में द्वारहाट स्थित छोटेछोटे मंदिर हैं जिनमें नागर-शैली की चतुष्कोणीय, अलंकरणरहित बड़ी-बड़ी देवकुलिकाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार के अन्य मंदिर भी संभवतः हिमालय के क्षेत्र में रहे होंगे। समूह ३: इस समूह के अंतर्गत उत्तर भारत के उन जैन मंदिरों को परिगणित किया जा सकता है जो जैनों की अंतिम शैली के मंदिर रहे हैं। इनके लिए सामान्यतः सोलहवीं शताब्दी का उत्तरवर्ती समय निर्धारित किया जाता है। ये मंदिर उस जैन कला का प्रतिनिधित्व करते हैं जो उत्तरवर्ती मगल स्थापत्य-शैली से विशेष रूप से प्रभावित है। जैन मंदिरों में मुगल-स्थापत्य का प्रभाव दाँतेदार तोरणों, अरब-शैली के अलंकरणों और शाहजहाँनी स्तंभों में देखा जा सकता है। शाहजहाँनी स्तंभों का आधार-भाग चौकीदार होता है, मध्यभाग शंक्वाकार तथा उनके शीर्ष पर छोटा-सा गोलाकार कलश की भाँति गुंबद होता है। इस प्रकार के स्तंभों का बाह्य आकार एक विशेष शैली का होता है। कुछ मंदिरों, विशेषकर जयपुर के पटोदी-मंदिर तथा दिल्ली के जैन मंदिर, में पश्चिम भारतीय मंदिरों की भाँति सर्पिल स्तंभ भी पाये गये हैं। ये स्तंभ रूपाकार में सामान्य हैं और अपने रूप में कलात्मक ह्रासकालीन विशेषताएं लिये हुए हैं। छज्जों में प्रयुक्त टोडे यद्यपि विभिन्न आकारप्रकार के हैं तथापि वे पतले और आकार में प्रभावहीन हैं। इन मंदिरों में स्थापत्यीय भव्यता का अभाव है। वस्तुतः ये जैन मंदिर स्थापत्य की महान् परंपरा का निर्वाह करने में असमर्थ रहे हैं। इस के अधिकांश मंदिर आकार में परंपरागत चतुर्भुज प्रकार के हैं जिनमें एक मध्यवर्ती मण्डप है और उसके पीछे की ओर एक गर्भगृह । कुछ मंदिरों में पृष्ठभाग में एक या एक से अधिक लघु 1. फर्ग्युसन (जेम्स). हिस्ट्री प्रॉफ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न मार्कीटेक्चर, 2. 1972. दिल्ली, (पुनर्मुद्रित).670 341 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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