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________________ वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1300 से 1800 ई० [ भाग 6 मत-मतांतरों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान के माध्यम मात्र वे साध थे जो देश के विभिन्न भागों में निरंतर भ्रमण किया करते थे। पश्चिम-राजस्थान तथा अन्य पूर्ववर्ती क्षेत्रों की स्थिति कुछ संतोषजनक थी, जिसका कारण यह था कि इन क्षेत्रों की शासन-व्यवस्था स्थानीय हिंदू राजाओं के हाथों में होने के कारण यहाँ पर सुलतानी प्रभाव बहुत ही कम आ पाया था। यद्यपि इस स्थिति के उपरांत भी ये क्षेत्र सांस्कृतिक ह्रास की प्रक्रिया को रोक नहीं सके। फिर भी धार्मिक परंपराओं को एक सीमा तक सुरक्षित रखने में उन्होंने सफलता अवश्य पायी थी। भारतीय कला की मुख्य धारा का एक अविभाज्य अंग होने के कारण जैन कला और स्थापत्य इन राजनैतिक परिवर्तनों से अछूता नहीं रह सका । फलतः उसे भी सांस्कृतिक परिवर्तनों के मध्य होकर चलना पड़ा। यह स्थिति अधिक समय तक नहीं चल सकी और शासक एवं शासित जातियों के मध्य पारस्परिक सांस्कृतिक सद्भाव के रूप में भारतीयकरण की एक नयी प्रक्रिया प्रारंभ हुई जिसके अंतर्गत उत्तर भारत के अनेक क्षेत्रों में मंदिरों का निर्माण कार्य पूरे जोर-शोर से प्रारंभ हया। फलतः राजस्थान में चौदहवीं एवं पंद्रहवीं शताब्दी के मध्य अनेक उत्कृष्ट मंदिरों की स्थापना हुई। इस काल में अनेकानेक पाण्डुलिपियों की रचना भी हुई जिनसे जैन शास्त्र-भण्डार संपन्न हुए। इन पाण्डुलिपियों में से अनेक को चित्रित भी किया गया था। मंदिर-स्थापत्य और प्रतिमा-कला के पुनरुत्थान के लिए भी तेरहवीं से लेकर अठारहवीं शताब्दी तक की लंबी कालावधि में पर्याप्त प्रयास हुए किन्तु ये कलाएँ अपने अतीतकालीन वैभव को प्राप्त नहीं कर सकीं। स्थापत्य-कला उत्तर भारत में इस काल के निमित जैन मंदिरों की विकास-रूपरेखा की सामग्री की अल्पता तथा उनकी विविध शैली-समन्वित रचनाओं के कारणों को खोज पाना सरल नहीं है। इस काल के जैन मंदिर, जो आज उपलब्ध हैं, वे किसी एक स्थापत्यीय शैली पर आधारित नहीं हैं। उनके रूप और प्राकारों तथा उनकी निर्माण-योजनाओं की विविधता के अतिरिक्त क्षेत्रीय भिन्नताएं, राजनैतिक परिस्थितियाँ, बदलता हा सौंदर्यपरक दृष्टिकोण तथा मंदिरों के निर्माण-कर्ताओं द्वारा उनपर किया गया व्यय आदि ऐसे अनेक कारण हैं कि वे अपने विकास की किसी सुनिश्चित दिशा की ओर संकेत नहीं कर पाते। मध्यकालीन जैन मंदिरों के प्राप्त स्थापत्यीय विवरणों के आधार पर उन्हें निम्नलिखित तीन मुख्य समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है : १. पश्चिम एवं मध्य भारत की परंपरागत शैली के जैन मंदिर-समूह; २. हिमालय का मंदिर-समूह; ३. मुगल प्रभावाधीन निर्मित मंदिर-समूह । ह के मंदिर सामान्यतः गुर्जर, मारु या मारु-गुर्जर स्थापत्यीय विशेषताएँ अपनाये हुए हैं। कुछ मंदिरों में इन विशेषताओं का न्यूनाधिक अंशों में उपयोग हुआ है तो कुछ 340 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001959
Book TitleJain Kala evam Sthapatya Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmichandra Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1975
Total Pages372
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Art
File Size26 MB
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