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वास्तु-स्मारक एवं मूर्तिकला 1000 से 1300 ई०
[ भाग 5 कई स्थानों पर हुआ है। इस दृष्टि से, इस मंदिर का प्राचीनतम अभिलेख कुलोत्तुंग-प्रथम (लगभग १११६ ई.) के पांचवें-छठे वर्ष में उत्कीर्ण हया था, इसलिए बर्धमान-मंदिर का अर्ध-मण्डप इस तिथि से पहले का होना चाहिए। इससे स्वयं वर्धमान-मंदिर उससे भी पहले का सिद्ध होता है। संगीत-मण्डप के उत्तर-पूर्व कोण के एक स्तंभ पर मण्डप के निर्माण के लिए दान करनेवाले की आकृति उत्कीर्ण है जो वही इरुगुप्प है जिसका उल्लेख मंदिर की छत पर उत्कीर्ण अभिलेखों में मण्डप के निर्माता के रूप में हुआ है। बुक्कराय-द्वितीय का सेनापति और मंत्री यह व्यक्ति वही है जिसका उल्लेख हम्पी के गणिगित्ति-जिनालय के स्तंभ-अभिलेखों में हुआ है। इनकी तिथि १३६५ ई० मानी गयी है जो तिरुपरुत्तिकुण्रम के संगीत-मण्डप के निर्माण से ठीक दो वर्ष पहले की है।
इस मंदिर के चारों ओर वृत्ताकार में लघु मंदिरों आदि की पंक्ति है जिसके अंतर्गत दक्षिणपश्चिमी कोण पर ब्रह्मदेव का मंदिर, उत्तर-पश्चिमी कोण पर ऋषभदेव का मंदिर और उत्तर-पूर्वी कोण पर प्रशालों की एक लंबी पंक्ति है; सभी प्रशालों के साथ एक बरामदा है और उन्हें मुनिवास कहते हैं। इसे मुनिवास कहने का कारण संभवत: यह मान्यता है कि इसी स्थान पर हुए पाँच मुनियों की आत्माएँ स्मृति-रूप में इन पाँचों गर्भगृहों में रह रही हैं। इनमें से दो गर्भगृह चौदहवीं शताब्दी के मल्लिषेण और पुष्पसेन के लिए निर्मित हुए थे। यदि यह ऐसा ही है तो उनके जन्म और मृत्यु की तिथियों के आधार पर ये गर्भगृह पंद्रहवीं या सोलहवीं शती से पूर्व के नहीं माने जा सकेंगे। इनमें मध्यवर्ती गर्भगृह में वर्धमान और पार्श्वनाथ की एक-एक मूर्ति है । स्पष्ट है कि यह इन मूर्तियों का मूल स्थान नहीं है।
प्राकार के पश्चिम भाग में एक तमिल अभिलेख है जिसमें वृत्तांत है कि इस मदिल (प्राकार-भित्ति) का निर्माण अल्गिय पल्लवन् ने कराया था, इसका समीकरण राजराज-तृतीय के सामंत कोप्पेरुनजिंग के द्वारा किया गया है, और इस अभिलेख में उल्लिखित उसकी स्वतंत्र मूर्तियों की तिथि से इस प्राकार की तिथि १२४३ ई० से बाद की सिद्ध होती है, जब उसने स्वयं राजमुकुट धारण किया था।
विजयमंगलम् के चंद्रनाथ-मंदिर-समूह (चित्र २१२ क) में अंतर्भाग के महा-मण्डपों से आगे स्थित बहिर्भाग के जो मण्डप हैं वे विजयनगर-काल में निर्मित हुए थे--यह तथ्य उनके स्तंभों, शिल्पांकनों और मान-स्तंभ से और मंदिर-समूह के विशाल गोपुर-द्वार से प्रमाणित होता है (चित्र२१२ ख)। मंदिरों के सम्मुख और उत्तुंग मान-स्तंभ बनाने की प्रथा इस जिले में व्यापक स्तर पर रही है, यहाँ तक कि ब्राह्मण्य मंदिरों के प्रवेश-द्वार के सम्मुख भी ऐसे विशाल स्तंभ (एक ही पाषाण से या कई शिलाखण्डों से) बनाये गये।
तिरुमल में दो निर्मित मंदिर हैं। उनमें से एक पर शिखर है जो उत्तरकालीन चोल
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