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अध्याय 24 ]
दक्षिणापथ और दक्षिण भारत
शैली की है और जिसमें कोई अलंकरण नहीं है। विजयमंगलम् के मंदिर की भांति इस मंदिर के भी गर्भालय में, शिखर के अंतर्भाग के ठीक प्रारंभ में, ढोलाकार अंतभित्तियों पर पंक्तिबद्ध चित्रकारी की गयी है।
उत्तर अर्काट जिले की एक छोटी पहाड़ी पर स्थित इस प्रकृति-रमणीय ग्राम में कुछ जैन मंदिर (चित्र २१३) हैं। पहाड़ी पर नेमिनाथ की एक बहुत बड़ी मूर्ति और गुफाओं की एक पंक्ति है गुफाएँ अब आवास-गृह के रूप में परिवर्तित कर दी गयी हैं और उनमें विविध प्रकार की ज्यामितिक तथा अन्य चित्रकारी है जिसमें समवसरण के दृश्य भी हैं। राष्ट्रकूट, केंद्रीय चोल, विजयनगर और नायक शासकों के समय के क्रिया-कलापों से इस स्थान की ख्याति फैली । यहाँ अत्यंत सुंदर शिल्पांकन सहित शिलाएँ और यक्ष-यक्षियों आदि की मूर्तियाँ हैं। क्रमशः वर्धमान और मेमिनाथ को समर्पित दोनों मंदिर पूर्णतया 'दक्षिणी' विमान-शैली के हैं और उनका निर्माण क्रमशः चोल और विजयनगर काल में हुआ; इनमें से नेमिनाथ-मंदिर बड़ा है और पहाड़ी की अधित्यका पर गुफा-शय्याओं के पास स्थित है। वर्धमान-मंदिर उससे छोटा और नीचे की ओर स्थित है और उसमें भी, प्रायः विजयमंगलम के मंदिर की भाँति शिखर के अंतर्भाग के प्रारंभ में और भित्तियों के ऊपरी भाग पर पंक्तिबद्ध चित्रकारी है।
तिरुमले का मंदिर-समूह पहाड़ी की उपत्यका में एक प्राकार के अंतर्गत स्थित है जिसके पूर्व में एक बहुत उत्तुंग गोपुर-द्वार (चित्र २१४) है। वर्धमान के लिए समर्पित मंदिर इस ऊँचाई पर प्राकार में एक ही है और उसके तीन तलों पर वर्तुलकार ग्रीवा तथा शिखर है । इसके अर्ध-मण्डप, महा-मण्डप
और मुख-मण्डप की योजना अक्षाकार है और उन तीनों की संयुक्त छत समतल है। इसके गर्भगृह में उत्तीर के ऊपर भित्तियों पर कदाचित् प्रारंभिक विजयनगर-काल की चित्रकारी है। दूसरे जगतीपीठ पर पुनः एक प्राकार-बंध है पर इसका गोपुर-द्वार अपेक्षाकृत लघु आकार का है; और दुर्भाग्य से इसका ऊपरी भाग नष्ट हो गया है। इस प्राकार-बंध के अंतर्गत एक विशाल मंदिर है, इसका भी शिखर-भाग नष्ट हो गया है। इस मंदिर का गर्भगृह चतुष्कोणीय है और इसके अर्ध-मण्डप और मुख-मण्डप के आकार बहुत विशाल हैं। दोनों मंदिरों के मुख-मण्डपों के विशाल उत्तीरों के नीचे विजयनगर की विशेष शैली की कोडुंगइ प्रकार की टोड़ियाँ हैं। इसके पश्चात् सबसे अधिक ऊँचाई पर निर्मित जगती-पीठ पर भी एक मंदिर है पर यह एक उभरी हुई चट्टान के किनारे से इस प्रकार संलग्न है कि उसके गुफा की भाँति भीतर की ओर के रिक्त स्थान से इस मंदिर की यथोचित संगति बैठ गयी है, और इस संगति का एक कारण यह भी है कि शिला को कई स्थानों पर काटकर गर्भालयों का रूप देकर उनके साथ भूतल का निर्माण कर दिया गया है। इस तरह के गर्भालयों में जो सबसे अधिक ऊँचाई पर है वह उस आयताकार चट्टान के ठीक नीचे पड़ता है जो ऊपर से बाहर की ओर निकली हुई है । भूतल पर स्थित मण्डप के ऊपर तीन तल और हैं । निर्मित मण्डपों के मध्य में स्थित सोपान-वीथिकाएँ अंतराल का काम करती हैं। प्रथम तलों का मूल आधार कोण-स्थित भित्तिस्तंभ हैं किन्तु ऊपर के दो तल इनसे भिन्न हैं। उपरितम तल से नीचे का तल केवल भित्ति-स्तंभों पर
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